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व्यक्ति और समाज ४०९ है कि 'जिनकल्पी ' साधक से भी अधिक 'स्थविरकल्पी' साधक का हमारी परम्परा में महत्त्व रहा है।
साधना के क्षेत्र में जिनकल्पी साधना की कठोर और उग्र भूमिका पर चलता है। आगम ग्रन्थों में जब हम 'जिनकल्पी' साधना का वर्णन पढ़ते हैं तो आश्चर्य चकित रह जाते हैं- कितनी उग्र, कितनी कठोर साधना है ? हृदय कँपा देने वाली उसकी मर्यादाएँ हैं ! 'जिनकल्पी' चला जा रहा है, सामने सिंह आ गया तो वह नहीं हटेगा, सिंह भले ही हट जाए, न हटे तो उसका ग्रास भले बन जाए, पर जिनकल्पी मुनि अपना मार्ग छोड़कर इधर-उधर नहीं जाएगा। मौत को सामने देखकर भी उसकी आत्मा भयभीत नहीं होती, निर्भयता की कितनी बड़ी साधना है !
चम्पा के द्वार खोलने वाली सती सुभद्रा की कहानी आपने सुनी होगी। मुनि चले जा रहे हैं, मार्ग में काँटेदार झाड़ी का भार सिर पर लिए एक व्यक्ति जा रहा है और झाड़ी का एक काँटा मुनि की आँख में लग जाता है। आँख बिंध गई और खून आने लग गया। कल्पना कीजिए, आँख में एक मिट्टी का कण भी गिर जाने पर कितनी वेदना होती है, प्राण तड़पने लग जाते हैं और यहाँ काँटा आँख में चुभ गया, खून बहने लगा, आँख सुर्ख हो गई, पर वह कठोर साधक बिलकुल बेपरवाह हुआ चला जा रहा है, उसने काँटा हाथ से निकाल कर फेंका भी नहीं । सुभद्रा के घर पर जब मुनि भिक्षा के लिए जाते हैं और सुभद्रा ने मुनि की आँख देखी, तो उसका हृदय चीख उठा । वेदना मुनि को हो रही थी पर सुभद्रा देखते ही जैसे वेदना से तड़प उठी, मुनि को कितना घोर कष्ट हो रहा होगा ? वह जिनकल्पी मुनि के नियमों से परिचित थी, जिनकल्पी मुनि अपने हाथ से काँटा नहीं निकालेंगे, यदि मैं इन्हें कहूँ कि काँटा निकाले देती हूँ तो भी मुनि ठहरने वाले नहीं हैं। निस्पृह और निरासक्त हैं ये ! सुभद्रा श्रद्धा-विह्वल हो गई और आहार देते-देते झटापटी में उसने अपनी जीभ से मुनि का काँटा निकाल दिया। परन्तु जल्दी में सुभद्रा का मस्तक मुनि के मस्तक से छू गया और उसके मस्तक पर ताजा लगाई हुई बिन्दी मुनि के मस्तक पर भी लग गई। यह घटना - प्रवाह आगे विकृत रूप में बदल गया और इस पर जो विषाक्त वातावरण सुभद्रा के लिए तैयार किया गया, वह आप सुन ही चुके हैं। किन्तु हमें यहाँ देखना है कि जिनकल्पी साधक की कठोर साधना कैसी होती है ? काँटा लग गया, पाँव में नहीं, आँख में! पाँव का काँटा भी चैन नहीं लेने देता, जिसमें यह तो आँख का काँटा ! आँख से रक्त बह रहा है, भयंकर दर्द हो रहा है। पर समभावी मुनि उसे निकालने को सोच भी नहीं रहे हैं। कोई कहे कि ठहरो, हम काँटा निकाल देते हैं, तो ठहरने को भी तैयार नहीं । कितनी हृदयद्रावक साधना है ! प्रश्न है कि ऐसी उग्र साधना करने वाला 'जिनकल्पी मुनि' उस अवस्था में कैवल्य ज्ञान पा सकता है कि नहीं ? जैन परम्परा का समाधान है कि नहीं, जिनकल्पी अवस्था में कैवल्य ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता ।
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