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४१० चिंतन की मनोभूमि संघ की सर्वोच्चता :
मैं समझता हूँ, साधना के क्षेत्र में यह बहुत बड़ी बात कही गई है। जिनकल्पी अवस्था कठोर साधना की अवस्था है। उस स्थिति में तपस्या और कष्ट-सहिष्णुता अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है, फिर क्या रहस्य है इसका कि जिनकल्पी साधना में मुक्ति नहीं होती?
मेरी बात आपके गले उतरे तो ठीक है, न उतरे तब भी कोई बात नहीं, मैं अपनी बात तो कहूँगा कि हम आजकल साधक की कठोर साधना को सर्वाधिक महत्त्व देते हैं, अनशन एवं कायक्लेश आदि उग्र तपश्चर्या को ही मुक्ति का एकमात्र सीधा मार्ग समझ बैठे हैं। परन्तु हमें इस प्रश्न की गहराई में जाना होगा कि जिनकल्पी मुनि जैसी कठोर साधना अन्य किसी अवस्था में नहीं हो सकती, किन्तु फिर भी, उस कठोर साधना काल में भी मुक्ति नहीं मिले तो इसका क्या कारण है ? जिनकल्प से भी अधिक महत्त्व की कोई अन्य साधना भी है क्या ?
बात यह है कि जैन परम्परा ने समूह को महत्त्व दिया है। व्यक्तिगत साधना से भी अधिक सामूहिक साधना का महत्त्व यहाँ माना गया है। सामूहिक साधना की परम्परा में 'स्थविरकल्प' की अपनी परम्परा है। यह वह परम्परा है, जिसमें परस्पर के सद्भाव और सहयोग का विकास हुआ है। सेवा और समर्पण का आदर्श विकसित हुआ है। स्थविरकल्प की साधना में सामाजिक भाव का उदय हुआ है, विकास हुआ है। परस्पर के अवलम्बन एवं प्रेरणा के मार्ग पर अग्रसर होती हुई चली गई है, यह साधना। 'स्थविरकल्पी' साधक उसी अवस्था में साधना की सर्वोच्च निर्मलता प्राप्त करके कैवल्य पा सकता है। इस दृष्टि से 'जिनकल्प' से भी अधिक महत्त्व 'स्थविरकल्प' का माना गया है।
बात यह है कि व्यक्ति महान् है, पर उससे भी महान् संघ है। व्यक्ति से समाज बड़ा है। राजनीति और समाज नीति में ही नहीं, आध्यात्म नीति में भी उसकी महत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता। यदि संघ या समाज नहीं है, तो व्यक्ति की ज्ञानविज्ञान की उपलब्धि का कोई उपयोग नहीं। इसलिए संघ का व्यक्ति से भी अधिक महत्त्व है।
तीर्थंकर जैन परम्परा के सर्वोच्च व्यक्ति हैं, महामानव हैं। आध्यात्मिक उपलब्धि के क्षेत्र में उनकी साधना अनन्यतम है। उनके जीवन प्रसंगों में आप देखेंगे कि जब समवसरण लगता है, तीर्थंकर सभा में विराजमान होते हैं, तब वे देशना प्रारम्भ करने से पहले तीर्थ को नमस्कार करते हैं, 'नमो तित्थस्स' तीर्थ कहें या संघ, एक ही बात है। तो आप विचार कीजिए, कितनी बड़ी बात कही है जैन परम्परा ने । तीर्थंकर भी मंगलाचरण के रूप में तीर्थ को, संघ को नमस्कार करते हैं। जो सर्वज्ञ हो चुके हैं, अतिशय-सम्पन्न हैं, जिनकी साधना सिद्धि के द्वार पर पहुंच चुकी है, वे उस
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