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४०८ चिंतन की मनोभूमि धर्म-साधना की अपेक्षा सामूहिक साधना को अधिक महत्त्व दिया है। सामूहिक चेतना और समूहभाव उसके नियमों के साथ अधिक जुड़ा हुआ है। अहिंसा और सत्य की वैयक्तिक साधना भी संघीय रूप में सामूहिक-साधना की भूमिका पर विकसित हुई है। अपरिग्रह, दया, करुणा और मैत्री की साधना भी संघीय धरातल पर ही पल्लवित-पुष्पित हुई है। जैन परम्परा का साधक अकेला नहीं चला है, बल्कि समूह के रूप में साधना का विकास करता चला है। व्यक्तिगत हितों से भी सर्वोपरि संघ के हितों का महत्त्व मानकर चला है। जिनकल्पी जैसा साधक कुछ दूर अकेला चलकर भी अन्ततोगत्वा संघीय जीवन में ही अन्तिम समाधान कर पाया है।
जीवन में जब संघीय भाव का विकास होता है, तो निजी स्वार्थों और व्यक्तिगत हितों का बलिदान करना पड़ता है। मन के केन्द्रों को समाप्त करना होता है। एकता
और संघ की पृष्ठभूमि त्याग पर ही खड़ी होती है। अपने हित, अपने स्वार्थ और अपने सुख से ऊपर संघ के हित को, संघ के स्वार्थ और सामूहिक हित को प्रधानता दी जाती है। संघीय जीवन में साधक अकेला नहीं रह सकता, सब के साथ चलता है। एक-दूसरे के हितों को समझकर, अपने व्यवहार पर संयम रखकर चलता है। परस्पर एक-दूसरे के कार्य में सहयोगी बनना, एक-दूसरे के दु:खों और पीड़ाओं में यथोचित साहस और धैर्य बँधाना, उसमें हिस्सा बँटाना, यही संघीय जीवन की प्रथम भूमिका होती है। जीवन में जब अन्तर्द्वन्द्व खड़े हो जायें और व्यक्ति अकेला स्वयं उनका समाधान न कर सके, तो उस स्थिति में दूसरा साथी उसके अन्तर्द्वन्द्वों को सुलझाने में सस्नेह सहयोगी बने, अँधेरे में प्रकाश दिखाये और पराभव के क्षणों में विजय मार्ग की ओर उसे बढ़ाता ले चले। सामूहिक साधना की यह एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है कि वहाँ किसी भी क्षण व्यक्ति अपने को एकाकी या असहाय अनुभव नहीं करता है, एक के लिए अनेक सहयोगी वहाँ उपस्थित रहते हैं। एक के सुख व हित के लिए, अनेक अपने सुख व हित का उत्सर्ग करने को प्रस्तुत रहते हैं।
__ जैसा कि मैंने बताया, बहुत पुराने युग में, व्यक्ति अपने को तथा दूसरों को अलग-अलग एक इकाई के रूप में सोचता रहा था, पर जब समूह और समाज का महत्त्व उसने समझा, संघ के रूप में ही उसके जीवन की अनेक समस्याएँ सही रूप में सुलझती हुई लगी, तो सामाजिकता में, संघीय भावना में उसकी निष्ठा बनती गई
और जीवन में संघ और समाज का महत्त्व बढ़ता गया। साधना के क्षेत्र में भी साधक व्यक्तिगत साधना से निकल कर सामूहिक-साधना की ओर आता गया।
जीवन की उन्नति और समृद्धि के लिए संघ का आरम्भ से ही अपना विशिष्ट महत्त्व है, इसीलिए व्यक्ति से अधिक संघ को महत्त्व दिया गया है। साधना के क्षेत्र में यदि आप देखेंगे तो हमने साधना के कुछ अंगों को व्यक्तिगत रूप में उतना महत्त्व नहीं दिया है, जितना समूह के साथ चलने वाली साधना को दिया है। जीवन में संघ का क्या महत्व है ? इसे समझने के लिए यही एक बहुत बड़ा उदाहरण हमारे सामने
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