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४०० | चिंतन की मनोभूमि
बुद्धिमान देवताओं ने एक तजवीज निकाली, जब देखा कि हाथ मुड़कर घूमता नहीं है, तो आमने-सामने वाले एक-दूसरे को खिलाने लग गए। दोनों पंक्ति वालों ने परस्पर एक-दूसरे को खिला दिया और अच्छी तरह से खाना खा लिया । जिन्होंने एक-दूसरे को खिलाकर पेट भर लिया, सभी तृप्त हो उठे, पर कुछ वैसे थे जो यों ही देखते ही रह गए, उन्हें एक-दूसरे को खिलाने की नहीं सूझी, वे भूखे पेट ही उठ खड़े हुए। विष्णु ने कहा- जिन्होंने एक-दूसरे को खिलाया वे देवता हैं और जिन्होंने किसी को नहीं खिलाया, सिर्फ स्वयं खाने की चिन्ता ही करते रहे, वे राक्षस हैं 1
वास्तव में यह रूपक जीवन की एक ज्वलंत समस्या का हल करता है । देव और राक्षस के विभाजन का आधार, इसमें एक सामाजिक ऊँचाई पर खड़ा किया गया. है । जो दूसरों को खिलाता है, वह स्वयं भी भूखा नहीं रहता और दूसरी बात है कि उसका आदर्श देवत्व का आदर्श है, जबकि स्वयं ही पेट भरने की चिंता में पड़ा रहने वाला, स्वयं भी भूखा ही रहता है और समाज में उसका दानवीय रूप प्रकट होता है। व्रतों की सार्थकता :
हमारे व्रत जीवन के इसी महान् उद्देश्य को प्रकट करते हैं । सामाजिक जीवन की आधारभूमि और उसके उज्ज्वल आदर्श हमारे व्रतों एवं त्योहारों की परम्परा में छिपे पड़े हैं। भारत के कुछ पर्व इस लोक के साथ परलोक के विश्वास पर भी चलते हैं । उनमें मानव का विराट् रूप परिलक्षित होता है। जिस प्रकार इस लोक का हमारा आदर्श है उसी प्रकार परलोक के लिए भी होना चाहिए। वैदिक या अन्य संस्कृतियों में, मरने के पश्चात् पिण्ड दान की प्रकिया की जाती है। इसका रूप जो भी कुछ हो, किन्तु भावना व आदर्श इसमें भी बड़े ऊँचे हैं। जिस प्रकार अपने सामाजिक सहयोगियों के प्रति अर्पण की भावना रहती है, उसी प्रकार, अपने पूर्वजों के प्रति एक श्रद्धा एवं समर्पण की भावना इसमें सन्निहित है। जैन धर्म व संस्कृति इसके धार्मिक स्वरूप में विश्वास नहीं रखती। उसका कहना है कि तुम पिण्डदान या श्राद्ध करके उन मृतात्माओं तक अपना श्राद्ध नहीं पहुँचा सकते, और न इससे पर्व मनाने की ही सार्थकता सिद्ध होती है । पर्व की सार्थकता तो इसमें है कि जीवन के दोनों ओर-छोर पर उल्लास और आनन्द की उछाल आती रहे ।
इस भावना को लेकर कि परलोक के लिए भी हमें जो कुछ सोचना है, करना है, वह इसी लोक में कर लिया जाए, हमारी जैन संस्कृति में अनेक पर्व चलते हैं । पर्युषण पर्व भी इसी भावना से सम्बद्ध है। इन पर्वों की परम्परा लोकोंत्तर पर्व के नाम से चली आती है। इनका आदर्श विराट् होता है। वे लोक-परलोक दोनों को आनन्दित करने वाले होते हैं। उनका संदेश होता है कि तुम सिर्फ इस जीवन के भोग-विलास व आनन्द में मस्त होकर अपने को भूलो नहीं, तुम्हारी दृष्टि व्यापक होनी चाहिए, आगे के लिए भी जो कुछ करना है, वह भी यहीं करलो । तुम्हारे दो हाथ हैं, एक हाथ में इहलोक के आनन्द हैं, तो दूसरे हाथ में परलोक के आनन्द रहने चाहिए।
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