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________________ भारतीय संस्कृति में व्रतों का योगदान ३९९ समाज का ऋण : जैन धर्म में भरत जैसे चक्रवर्ती भी रहे, किन्तु वे उस विशाल साम्राज्य के बन्धन में नहीं फँसे । जब तक इच्छा हुई, उपभोग किया और जब चाहा तब छोड़कर योग स्वीकार कर लिया। उनका ऐश्वर्य, बल और बुद्धि, समाज व राष्ट्र के कल्याण के लिए ही होता था । उन लोगों ने यही विचार दिया कि जब हम इस जगत् में आए थे, तो कुछ लेकर नहीं आए थे, जन्म के समय तो मक्खी-मच्छर को शरीर से दूर हटाने की भी शक्ति नहीं थी। शास्त्रों में उस स्थिति को 'उत्तानशायी' कहा गया है। जब उसमें करवट बदलने की भी क्षमता नहीं थी, इतना अशक्त और असहाय प्राणी बाद में इतना शक्तिशाली बना, इसका आधार भी कुछ है और वह यह है—अपने शुभ कर्मों का संचय एवं उसके आधार पर प्राप्त होने वाला माता-पिता, परिवार व समाज का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग ! यह निश्चित है कि जिन पुरुषार्थों ने हमे समाज की इतनी ऊँचाइयों पर लाकर खड़ा किया है, उनके प्रति हमारा बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। समाज का ऋण प्रत्येक मनुष्य के सिर पर है, जिसे वह लेते समय हर्ष के साथ लेता है । फिर उसको चुकाते समय वह कुलबुलाता क्यों है ? हमारी यह सब सम्पत्ति, सब ऐश्वर्य और ये सब सुख सामग्रियाँ समाज की ही देन हैं। यदि मनुष्य लेता ही लेता जाए, वापस दे नहीं, तो वह समाज के अंग में विकार पैदा कर देता है। वह इस धन ऐश्वर्य का दासं बनकर क्यों रहे, उसका स्वामी बनकर क्यों न उपयोग करे ! उसे दो हाथ मिले हैं, एक हाथ से स्वयं खाए तो दूसरे हाथ से औरों को खिलाए। वेद का एक मन्त्र है 64 'शत हस्त समाहर, सहस्त्रहस्त संकिर । " सौ हाथ से इकट्ठा करो, तो हजार हाथ से बाँटो । संग्रह करने वाला यदि विसर्जन नहीं करे तो उसकी क्या दशा होती है। पेट में यदि अन्न आदि इकट्ठे होते जाएँ, न उनका रस बने, न मल का विसर्जन हो, तो क्या आदमी जी सकता है ? मनुष्य यदि समाज से कमाता है, तो समाज की भलाई के लिए देना भी आवश्यक होता है। खुद खाता है तो दूसरों को खिलाना भी जरूरी है। हमारे अतीत-जीवन के उदाहरण बताते हैं कि अकेला खाने वाला राक्षस होता है और दूसरों को खिलाने वाला देवता । एक बार की बात है कि देवताओं को भगवान् विष्णु की ओर से प्रीतिभोज का आमंत्रण दिया गया । सभी अतिथियों को दो पंक्तियों में आमने-सामने बिठलाकर भोजन परोसा गया और सभी से खाना शुरू करने का निवेदन किया गया। भगवान् विष्णु ने कुछ ऐसी माया रची कि सभी के हाथ सीधे रह गए, किसी का मुड़ता तक नहीं था। अब समस्या हो गई कि खाएँ तो कैसे खाएँ ? जब अच्छा भोजन परोसा हुआ सामने पड़ा हो, पेट में भूख हो और हाथ नहीं चलता हो, तो ऐसी स्थिति में आदमी झुंझला जाता है। कुछ अतिथि भौचक्के से देखते रह गए कि यह क्या हुआ ? आखिर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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