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________________ ३९८ | चिंतन की मनोभूमि पीछे सिर्फ अतीत की याद को ताजा करना ही हमारा लक्ष्य नहीं है, बल्कि उसके प्रकाश में वर्तमान को देखना भी आवश्यक है । अतीत का वह गौरव जहाँ एक ओर हमारे जीवन का एक सुनहरा पृष्ठ खोलता है, वहाँ दूसरी ओर नया पृष्ठ लिखने का भी सन्देश देता है । इसलिए व्रतों की खुशी के साथ-साथ हमें अपने नव-जीवन के अध्याय को भी खोलना चाहिए और उसका अवलोकन करके अतीत को वर्तमान के साथ मिलाना चाहिए । जीने की कला : यद्यपि जैन धर्म की परम्परा निवृत्ति-मूलक रही है; उसके अनुसार जीवन का लक्ष्य भोग नहीं, त्याग है; बन्धन नहीं, मोक्ष है, तथापि इसका अर्थ यह नहीं कि वह सिर्फ परलोक की ही बात करता है । इस जीवन से उसने आँखें मूँद ली हों। हम इस संसार में रहते हैं, तो हमें संसार के ढंग से ही जीना होगा, हमें जीने की कला सीखनी होगी। जब तक जीने की कला नहीं आती है, तब तक जीना वास्तव में आनन्ददायक नहीं होता। जैन परम्परा, जैन पर्व एवं जैन विचार हमें जीने की कला सिखाते हैं, हमारे जीवन को सुख और शान्तिमय बनाने का मन्त्र देते हैं। जैन धर्म का लक्ष्य मुक्ति है, किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं कि उसके पीछे इस जीवन को बर्बाद कर दिया जाए। वह नहीं कहता है कि मुक्ति के लिए शरीर, परिवार व समाज के बन्धनों को तोड़ डाले, कोई किसी को अपना न माने, कोई पुत्र अपने पिता को पिता न माने, पति-पत्नी परस्पर कुछ भी स्नेह का नाता न रखें, बहन-भाई आपस में एकदूसरे से निरपेक्ष होकर चलें। जीवन की यात्रा में चलते हुए, परिवार, समाज व राष्ट्र के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का भार उतार फेंकें इस प्रकार तो जीवन में एक भयंकर तूफान आ जाएगा, भारी अव्यवस्था और अशान्ति बढ़ जाएगी, मुक्ति की अपेक्षा स्वर्ग से भी गिरकर नरक में चले जाएंगे। जैन धर्म का सन्देश है कि हम जहाँ भी रहें, अपने स्वरूप को समझकर रहें, शारीरिक, पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्धों के बीच बँधे हुए भी उनमें कैद न हों। परस्पर एक-दूसरे की आत्मा को समझकर चलें, शारीरिक सम्बन्ध को महत्त्व न देकर आत्मिक पवित्रता का ध्यान रखें। जीवन में सब कुछ करना पड़ता है, किन्तु आसक्त होकर नहीं, अपितु सिर्फ एक कर्तव्य के नाते किया जाए। शरीर व इन्द्रियों के बीच में रहकर भी उसके दास नहीं, अपितु स्वामी बनकर रहें। भोग में रहते हुए भी योग को भूल न जाएँ । महलों में रहकर भी उनके दास बनकर नहीं, किन्तु उन्हें अपना दास बनाकर रखें। ऊँचे सिंहासन पर, या ऐश्वर्य के विशाल ढेर पर बैठकर भी उसके गुलाम न बनें, बल्कि उसे अपना गुलाम बनाए रखें। जब धन स्वामी बन जाता है, तभी मनुष्य को भटकाता है। धन और पद मूर्तिमान शैतान हैं। जब तक ये इन्सान के पैरों के नीचे दबे रहते हैं, तब तक तो ठीक हैं, परन्तु जब ये सर पर सवार हो जाते हैं तो इन्सान को भी शैतान बना देते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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