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________________ भारतीय संस्कृति में व्रतों का योगदान | ३९७/ पुरुषार्थ जागरण की उस बेला में भगवान् ऋषभदेव ने युग को नया मोड़ दिया। मानवजाति को, जो धीरे-धीरे अभावग्रस्त हो रही थी, पराधीनता के फन्दे में फंसकर तड़पने लगी थी, उसे उत्पादन का मन्त्र दिया, श्रम और स्वतन्त्रता का मार्ग दिखाया। और, मानव समाज में फिर से उल्लास एवं आनन्द बरसने लग गया। सुख-चैन की मुरली बजने लग गई। ___ मनुष्य के जीवन में जब-जब ऐसी सुख की घड़ियाँ आती हैं, आनन्द की स्रोतस्विनी बहने लग जाती है, वह नाचने लगता है। सबके साथ बैठकर आनन्द और उत्सव मनाता है और बस वे ही घड़ियाँ, वे ही तिथियाँ जीवन में व्रत का रूप ले लेती हैं और इतिहास की महत्त्वपूर्ण तिथियाँ बन जाती हैं। इस प्रकार उस नये युग का नया सन्देश जन-जीवन में नई चेतना फूंककर उल्लास का त्योहार बन गया और वही परम्परा आज भी हमारे जीवन में आनन्द-उल्लास की घड़ियों को त्योहार के रूप में प्रकट करके सबको सम्यक् आनन्द का अवसर देती है। भगवान ऋषभदेव के द्वारा कर्मभूमि की स्थापना के बाद मनुष्य पुरुषार्थ के युग में आया और उसने अपने उत्तरदायित्वों को समझा। परिणाम यह हुआ कि सुखसमृद्धि और उल्लास के झूले पर झूलने लगा, और जब सुख-समृद्धि एवं उल्लास आया, तो फिर व्रतों में से व्रत निकलने लगे। हर घर, हर परिवार त्योहार मनाने लगा और फिर सामाजिक जीवन में पौं, त्योहारों की लड़ियाँ बन गईं। समाज और राष्ट्र में त्योहारों की श्रृंखला बनी। जीवन का क्रम जो अब तक व्यक्तिवादी दृष्टि पर घूम रहा था, अब व्यष्टि से समष्टि की ओर घूमा। व्यक्ति ने सामूहिक रूप धारण किया और एक की खुशी, एक का आनन्द, समाज की खुशी और समाज का आनन्द बन गया। इस प्रकार सामाजिक भावना की भूमिका पर चले हुए व्रत, सामाजिक चेतना के अग्रदूत सिद्ध हुए। नई स्फूर्ति, नया आनन्द और नया जीवन समाज की नसों में दौड़ने लगा। प्राचीन जैन, बौद्ध एवं वैदिक ग्रन्थों के अनुशीलन से ऐसा लगता है कि उस समय में पर्व, त्योहार जीवन के आवश्यक अंग बन गए थे। एक भी दिन ऐसा नहीं जाता, जबकि समाज में पर्व, त्योहार व उत्सव का कोई आयोजन नहीं हो। इतना ही नहीं, बल्कि एक-एक दिन और तिथियों में दस-दस और उससे भी अधिक पर्वो का सिलसिला चलता रहता था। सामाजिक जीवन में बच्चों के पर्व अलम, औरतों के पर्व अलग, और वृद्धों के पर्व अलग। इस दृष्टि से भारत का जन-जीवन नित्यप्रति बहुत ही उल्लसित और आनन्दित रहा करता था। व्रतों का सन्देश : हमारे व्रतों की वह लड़ी, कुछ छिन्न-भिन्न हुई परम्परा के रूप में आज भी हमें महान् अतीत की याद दिलाती है। हमारा अतीत उज्ज्वल रहा है, इसमें कोई सन्देह नहीं। किन्तु वर्तमान कैसा गुजर रहा है, यह थोड़ा विचारणीय है। इन व्रतों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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