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________________ ३९६ चिंतन की मनोभूमि भी आत्मा मोक्ष में नहीं गई और कर्म तथा वासना के बन्धन को नहीं तोड़ सकी। उनकी दृष्टि केवल 'मैं' तक ही सीमित थी। शरीर के अन्दर में शरीर से परे क्या है, मालूम होता है, इस सम्बन्ध में उन्होंने कभी सोचा ही नहीं और यदि किसी ने सोचा भी तो आगे कदम नहीं बढ़ा सका। जब कभी उस भूमिका का अध्ययन करता हूँ, तो मन में ऐसा भाव आता है कि मैं उस जीवन से बचा रहूँ। जिस जीवन में ज्ञान का कोई प्रकाश न हो, सत्यता का कोई मार्ग न हो, भला उस जीवन में मनुष्य भटकने के सिवा और क्या कर सकता है ? उस जीवन में यदि पतन नहीं है तो उत्थान भी तो नहीं है। ऐसी निर्माल्य दशा में, इस त्रिशंकु जीवन का कोई भी महत्त्व नहीं है। कुछ ऐसी ही क्रान्ति और प्रगतिविहीन सामान्य दशा में वह अकर्म-युग चल रहा था, उसे जैन भाषा से पौराणिक युग कहते हैं। नवयुग का नया सन्देश : धीरे-धीरे कल्पवृक्षों का युग समाप्त हुआ। इधर प्राकृतिक उत्पादन क्षीण पड़ने लगे, इधर उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ने लगी। ऐसी परिस्थितियों में प्राय: विग्रह, वैर और विरोध पैदा हो ही जाते हैं। जब कभी उत्पादन कम होता है और उपभोक्ताओं की संख्या अधिक होती है, तब परस्पर संघर्षों का होना अवश्यंभावी है। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक तौर पर उस युग में भी यही हुआ कि पारस्परिक प्रेम एवं स्नेह टूट कर घृणा, द्वेष, कलह और द्वन्द्व बढ़ने लगे, संघर्ष की चिनगारियाँ छिटकने लग गईं। समाज में सब ओर कलह, घृणा. द्वन्द्व का सर्जन होने लगा। मानव जाति की उन संकटमयी घड़ियों में, संक्रमणशील परिस्थितियों में भगवान् ऋषभदेव ने मानवीय भावना का उद्बोधन किया। उन्होंने मनुष्य जाति को समझाया कि अब प्रकृति के भरोसे रहने से काम चलने का नहीं है। हमारे हाथों का उपयोग सिर्फ खाने के लिए ही नहीं, प्रत्युत कमाने, उपार्जन करने के लिए भी होना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि---युग बदल गया है, वह अकर्म-युग का मानव अब कर्म-युग (पुरुषार्थ के युग) में प्रविष्ट हो रहा है। इतने दिन पुरुष सिर्फ भोक्ता बना हुआ था। प्रकृति के कर्तृत्व पर उसका जीवन टिका हुआ था। किन्तु अब यह वैषम्य चलने का नहीं है। अब कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों ही पुरुष में हैं। पुरुष ही कर्ता है और पुरुष ही भोक्ता है। तुम्हारी भुजाओं में बल है, तुम पुरुषार्थ से आनन्द का उपभोग करो। भगवान् आदिनाथ के कर्म-युग का यह उद्घोष अब भी वैदिक वाङ्गमय में प्रतिध्वनित होता दिखाई पड़ता है- . "अयं मे हस्तो भगवान् अयं में भगवत्तर : कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्ये आहित ।" मेरा हाथ ही भगवान् है, भगवान् से भी बढ़कर है। मेरे दाएँ हाथ में कर्तृत्व है, पुरुषार्थ है; तो बाएँ हाथ में विजय है, सफलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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