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भारतीय संस्कृति में व्रतों का योगदान | ३९५/ ओढ़ लिया जाए तो अति उत्तम हो। ऐसा करने से प्रचलित परम्परा का मूल उद्देश्य भी कायम रह जाएगा और सम्यक्त्व तथा व्रतों में दूषण भी न लगने पाएगा।
लाल कपड़ा प्रसन्नता का, अनुराग का द्योतक माना जाता है। इस प्रकार जैनों ने रक्त से लथपथ चमड़े के बदले लाल कपड़ा ओढ़ने की जो परम्परा चलाई, वह आज भी चल रही है। आज भी विवाह आदि अवसरों पर स्त्रियाँ लाल कपड़े पहनती हैं। तो जैनों ने उस दूषित परम्परा को बदलने के साथ कितनी बड़ी क्रान्ति की है, इस बात का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इस विषय में अधिक देखना चाहें तो "गोभिल्ल गृह्यसूत्र' में विस्तार से देख सकते हैं।
उसी युग में एक परम्परा और थी । उत्सव के अवसर पर लोग मनुष्य की खोपडी लेकर चलते थे; परन्तु जब जैनधर्म का प्रचार बढा, तो खोपडी रखने की भद्दी परम्परा समाप्त कर दी गई। जैनधर्म ने उसके स्थान पर नारियल रखने की परम्परा प्रचलित की। इस प्रकार जैनधर्म की बदौलत खोपड़ी की जगह नारियल की परम्परा धीरे-धीरे सर्वमान्य हो गई। आप देखेंगे कि नारियल ठीक खोपड़ी की शक्ल का होता है, वह मानव की-सी आकृति का है। इस रूप में नारियल नरमुण्ड का प्रतीक है। उस समय के जैनियों ने विचारा–खोपड़ी रखने से क्या लाभ ? खोपड़ी तो अपावन और अशोभन वस्तु है और जंगलीपन की निशानी भी है। नारियल रखने से उस परम्परा का पालन भी हो जाएगा और जंगलीपन की निशानी भी दूर हो जाएगी।
इस प्रकार उस समय के जंगली रिवाजों को जैनधर्म ने दूर किया, जिसमें देवीदेवताओं के आगे मनुष्य की खोपड़ी चढ़ाई जाती थी। मैं समझता हूँ, जैनियों ने उन हिंसक परम्पराओं को खत्म करके और उनकी जगह इन नवीन अहिंसक परम्पराओं को कायम करके मानवीय वृत्ति की स्थापना की। जैनों ने नारियल के रूप में खोपड़ी को प्रतीक रक्खा, उसे अन्य धर्मावलम्बियों ने भी स्वीकार कर लिया और आज तक वह कायम है। इस प्रकार, जैनधर्म द्वारा स्थापित की हुई प्रथाओं और परम्पराओं में सर्वत्र आप अहिंसा की ही स्फुरणा देखेंगे। पौराणिक युग की परम्परा :
__ अकर्म-भूमि की उस अवस्था में मनुष्य सागरों के सागर चलता गया। मानव की पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ बढ़ती गईं। किन्तु फिर भी उस जाति का विकास नहीं हुआ। उनके जीवन का क्रम विकसित नहीं हुआ, उनके जीवन में संघर्ष कम थे, लालसाएँ और आकांक्षाएँ कम थीं। जीवन में भद्रता, सरलता का वातावरण था। कषाय की प्रकृतियाँ भी मंद थीं। यद्यपि कषायभाव की यह मन्दता ज्ञानपूर्वक नहीं थी, उनका स्वभाव, प्रकृति ही शान्त और शीतल थी। सुखी होते हुए भी उनके जीवन में ज्ञान एवं विवेक की कमी थी, वे सिर्फ शरीर के क्षुद्र घेरे में बन्द थे। संयम, साधना तथा आदर्श का विवेक उस जीवन में नहीं था। यही कारण था कि उस काल में एक
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