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भारतीय संस्कृति में व्रतों का योगदान
मानव-जाति के इतिहास पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि आदिकाल के अकर्म-युग से मनुष्य ने जब कर्म-युग में प्रवेश किया, तब उसके जीवन का लक्ष्य अपने पुरुषार्थ के आधार पर निर्धारित हुआ। जैन परम्परा और इतिहास के अनुसार उस मोड़ के पहले का युग एक ऐसा युग था, जब मनुष्य अपना जीवन प्रकृति के सहारे पर चला रहा था, उसे आपने आप पर भरोसा नहीं था, या यों कहें कि उसे अपन पुरुषार्थ पर विश्वास नहीं हुआ था। उसकी प्रत्येक आवश्यकता प्रकृति के हाथों पूरी होती थी, भूख प्यास की समस्या से लेकर बड़ी से बड़ी समस्याएँ प्रकृति के द्वारा हल होती थीं, इसीलिए वह प्रकृति की उपासना करने लगा। कल्पवृक्षों के निकट जाकर उनकी आरजू, मिन्नतें करता और उनसे प्राप्त सामग्रियों के आधार पर अपना जीवन-निर्वाह करता। इस प्रकार आदियुग का मानव प्रकृति के हाथों में खेला था। उत्तरकालीन ग्रन्थों से पता चलता है कि उस युग के मानव की आवश्यकताएँ बहुत ही कम थीं। उस समय भी पति-पत्नी होते थे, पर उनमें परस्पर एक-दूसरे का सहारा पाने की आकाँक्षा, उत्तरदायित्व की भावना नहीं थी। सभी अपनी अभिलाषाओं और अपनी आवश्यकताओं के सीमित दायरे में बंधे थे। एक प्रकार से वह युग उत्तरदायित्वहीन एवं सामाजिक तथा पारिवारिक सीमाओं से मुक्त एक स्वतन्त्र जीवन था, कल्पवृक्षों के द्वारा तत्कालीन आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी, इसलिए किसी को भी उत्पादन-श्रम एवं जिम्मेदारी की भावना से बाँधा नहीं गया था, सभी अपने में मस्त थे, लीन थे। व्रत और रीति-रिवाज :
पुराने युग में एक ऐसा रिवाज प्रचलित था कि विवाह के समय बैल को ताजा मार कर उसके गीले खून से भरा लाल चमड़ा वर-वधू को ओढ़ाया जाता था। परन्तु जैनों को यह रिवाज कब मान्य हो सकता था? इसका अनुकरण करने से तो अहिंसा व्रत दूषित होता है। व्रतों के सामने रीति-रिवाज का क्या मूल्य है ? तो जैन इस रिवाज के लिए क्या करें? वैदिक परम्परा के कुछ लोग तो ऐसा किया करते थे और सम्भव है उन्होंने इस चीज को धर्म का भी रूप दिया हो । परन्तु जैन लोग इस प्रथा को स्वीकार नहीं कर सकते थे। उन्होंने इसमें सम्यक्त्व और व्रत-दोनों की हानि देखी। अतएव जैन गृहस्थों और जैनाचार्यों ने उस हिंसापूर्ण परम्परा में संशोधन कर लिया। उन्होंने कहा—गीला चमड़ा न ओढ़ाए जाएँ, उसके स्थान पर लाल कपड़ा
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