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२० चिंतन की मनोभूमि अनासक्त भाव से उपयोग होना चाहिए। नैतिक बाह्य भोग भी अन्तरंग में अनासक्त दृष्टि रहने से एक प्रकार का अभोग ही अर्थात् त्याग ही बन जाता है। यही भोग और त्याग का वास्तविक निष्कर्ष है, मूलतः रागद्वेष की तीव्रता कम करने का ही जैनधर्म का उपदेश है। और यही वह मार्ग है, जिस पर चलकर साधक भोग से उभोग की ओर बढ़ सकता है, कर्म से अकर्म की ओर अग्रसर हो सकता है।
___ भारतवर्ष का एक शाश्वत विचार चला आया है कि आत्मा शुद्ध, बुद्ध, निर्मल और निर्विकारस्वरूप है। वही ईश्वर या परमात्मा है। उसे कहीं भी विकारी, पापी या दोषों से लिप्त नहीं कहा गया है। प्रश्न होता है कि जब आत्मा एकदम निर्मल स्वरूप है तो फिर काम, लोभ, क्रोध, मात्सर्य, अहंकार आदि दुर्गुण के कीड़े कहाँ से आ गए ? वे सब वैभाविक परिणतियाँ हैं। द्रव्य-संग्रह में आचार्य नेमिचन्द्र ने कहा
है
"मग्गण गुण - ठाणेहिं य,
चउदसहि हवंति तह असुद्धणया। विण्णेया संसारी सव्वे:
सुद्धा हु सुद्धणया ॥ जब-जब जीवों के भेदों की गिनती करता हूँ, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय आदि तथा मन वाले और बिना मन वाले—इन भेदों की ओर जब जाता हूँ, तो तीर्थङ्कर तक भी अशुद्ध ही प्रतीत होते हैं। जहाँ पर मोक्ष में केवल पल भर की ही देरी हो, वहाँ की स्थिति में भी अशुद्धि ही दृष्टिगोचर होती है। गुणठाणों की दृष्टि वहाँ भी चलती है
और एक से चौदह गुणस्थान तक अर्थात् मोक्ष से पहले तक की स्थिति अशुद्ध ही प्रतीत होती है। वहाँ तक सभी संसारी जीव हैं और जो संसारी है, वे सब बद्ध हैं
और, बद्धता का अर्थ ही है-कर्म का आत्मा के साथ सम्पर्क। जबतक कर्म आत्मा के साथ चिपके हुए हैं, तबतक आत्मा पूर्ण मुक्त नहीं, पूर्ण शुद्ध नहीं। और, इस दृष्टि से भी यह बात ठीक प्रतीत होती है कि यदि अशुद्धता नहीं है तो गुणस्थान कहाँ टिकेंगे। गुणस्थानों का श्रेणी-विभाजन आत्मा की क्रमिक विशुद्धि के आधार पर ही किया गया है। यदि चौदहवें गुणस्थान को छोड़ने से पहले पूर्णशुद्धि हो गई तो फिर गुणस्थान की कोई सीमा नहीं रही। अतः चौदहवें गुणस्थान वालों को भी मुक्त होना बाकी रहता है। इस प्रकार अशुद्ध तप से, तथा संसार के प्रपंचों, भाव-विभावों और भाव मन के उछल-कूद के आधार पर देखें, तो कहीं दर्शन मोह, कहीं चारित्र मोह, कहीं ज्ञानावरण, कहीं दर्शनावरण आदि का खेल देखने को मिलेगा और उससे भी परे आयु, गोत्र आदि कर्म का। .
इसी उपर्युक्त विचार को यदि हम शुद्ध नय की दृष्टि से देखने का प्रयत्न करें तो सभी विकल्पों, विभावों और प्रपंचों से परे हमें शुद्ध, निर्मल आत्मा के दर्शन होंगे। एकेन्द्रिय, निगोद से लेकर पंचेन्द्रिय आदि समस्त चेतना जगत् में शुद्ध आत्मतत्त्व की
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