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________________ आत्मा का विराट् रूप हमारे समग्र जीवन-चक्र का केन्द्र आत्मा है। यही सृष्टि का सम्राट् और शासक है। इसी सम्राट् की आज्ञा से शरीर और इन्द्रियाँ दास-दासियों की तरह काम करते हैं। मन भी उसी की आज्ञा और अनुशासन में रहता है। जो मन शरीर और इन्द्रियों पर अधिकार चलाता है वह भी अन्ततः आत्मा के शासन में ही चलता है। मन आत्मा की आज्ञा के विपरीत कुछ भी नहीं कर सकता। यह बात दूसरी है कि आत्मा आज्ञा देते समय होश में रहती है या नहीं। आत्मा के शासन करने का तरीका जब गलत होता है और अधिकार के साथ विवेक नहीं रहता है, तब मन गलत रास्ते पर चल पड़ता है। जब आत्मा स्वयं ठोकर खाते एवं भटकते हुए मन को आज्ञा देती है, तो उसके विकल्पों और क्रियाओं के लिए वह स्वयं उत्तरदायी होती है। शरीर और इन्द्रियाँ तो मन के दास हैं, इसलिए वे भी स्वयं किसी कार्य के लिए उत्तरदायी नहीं हैं। इन सब उत्तरदायित्वों का भार अन्ततः आत्मा पर आ जाता है। अतः मन, शरीर और इन्द्रियों के प्रत्येक कार्य का दायित्व उनका अपना नहीं, आत्मा का है, चूंकि इन पर आत्मा के सिवा और किसी का नियंत्रण नहीं हैं। मैंने आपसे प्रारम्भ में बताया है कि आत्मा कर्मों का कर्ता है। इसलिए भोक्ता भी है। जब कर्म करने के आन्तरिक कारण राग और द्वेष समाप्त हो जायेंगे, तब व्यक्ति कर्म करते हुए भी अकर्मदशा को प्राप्त कर लेगा। उस अवस्था में जितना भी पुराना भोग है, वही शेष रह जाएगा, वह भोग समाप्त होते ही आत्मा मुक्त अवस्था को प्राप्त हो जाएगी। जैन दर्शन भोग त्याग से भी अधिक भोगासक्ति के त्याग पर बल देता है। जब तक जीवन है, बाह्य भोग के त्याग की एक सीमा होती है, शरीर है तो समय पर भोजन भी चाहिए, वस्त्र, पात्र, निवास आदि भी चाहिए। त्यागी से त्यागी भी जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से हमेशा के लिए बचकर नहीं चल सकता। सर्वसाधारण लोगों को भ्रांति में रखने के लिए भोगोपभोग से अपने को सर्वथा मुक्त बताते रहना, अलग बात है, किंतु जीवन की यथार्थ स्थिति अपने में कुछ और ही है। जैन परिभाषा के अनुसार भोजन, पान, वस्त्र, पात्र एवं निवास आदि सब भोगोपभोग की सीमा में आतें हैं। अत: जैन दर्शन ने इस सम्बन्ध में स्पष्ट निर्णय दिया है कि जीवन में उसी भाँति भोगोपभोग का त्याग आवश्यक है, जो मर्यादाहीन, अनैतिक, दूषित एवं अनावश्यक हो। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं का विश्लेषण करना आवश्यक है और जो मर्यादाप्रधान, नैतिक, निर्मल एवं आवश्यक भोगोपभोग हों, उनका भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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