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________________ आत्मा का विराट् रूप २१ अमर ज्योति स्थित है, पापी, दुराचारी और परमाधार्मिक तथा नरक की अग्नि में जलने वाले नैरयिकों में भी आत्मा का शुद्ध रूप दिखाई पड़ता है । भगवान् महावीर ने कहा है कि प्रत्येक प्राणी में आत्मा की अनन्त शक्तियाँ, अमित उज्ज्वलता छिपी है। इसीलिए उन्होंने कहा कि इस दृष्टि से सब आत्माएँ एक समान हैं 'एगे आया ' इसे संग्रह नय की भाषा में 'आत्मा एक है', कहा है। इसी दृष्टि से मंत्रद्रष्टा ऋषियों ने यह उद्घोष किया "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति " 'सत्' आत्मा एक ही है, शुद्धि, शान्ति, सामर्थ्य आदि गुण की अपेक्षा से संसार की कोई भी आत्मा एक-दूसरे से भिन्न नहीं है। यह आत्मा का शुद्ध रूप देखने का दृष्टिकोण है। यही प्रश्न सन्त तुलसीदासजी ने रामचरित मानस की आदि में मंगलाचरण में भी उठाया है कि- नमस्कार किसको करें ? ब्रह्मा, विष्णु, महेश और सम्प्रदायों के अनेकानेक देवताओं में किसको चुनें और किसको छोड़ें ? और, जब अन्तरात्मा की शुद्धता की प्रतीति हुई, तो प्रत्येक प्राणि में यही विराट् शुद्धता उन्हें दिखलाई पड़ी और तत्काल ही अपने प्रश्न का उत्तर उन्होंने स्वयं दे दिया— 44 'सिया राममय' सब जग जानी। करऊँ प्रणाम जोरि युग पानी ॥ " इस चौपाई में एक विराट् सत्य का उद्घाटन उन्होंने कर दिया है। उन्होंने सर्वत्र और सभी आत्माओं में सीताराम का दर्शन किया। राम और सीता के बिना उन्हें कोई भी आत्मा दिखलाई नहीं पड़ी, कहीं भी उन्होंने रावण या कुम्भकरण का दर्शन नहीं किया, हर आत्मा राम और सीता के उज्ज्वल रूप से जगमगाती दिखलाई दी। जैनों के द्वारा जब नमस्कार करने का प्रश्न उठा, तो विचार किया गया। किसी एक या अनेक तीर्थङ्कर, परमात्मा या भगवान् पर जाकर बुद्धि नहीं रुकी। उन्होंने कहा कि-' णमो अरिहंताणं' इसी एक पद में समस्त भूत, भविष्यत् और वर्तमान के अरिहंतों का नमस्कार हो गया। नहीं तो कितने अरिहंतों का अलग-अलग नाम गिनाते या किसको नमस्कार करते और किसको छोड़ते ? किसका नाम पहले लेते और किसका पीछे ? इस प्रकार अनेक विवादग्रस्त प्रश्न उपस्थित हो जाते, जिनमें नमस्कार का भाव ही तिरोहित हो जाता। इसी प्रकार इसके आगे ' णमो सिद्धाणं' में भूत, वर्तमान और भविष्यत् के सभी सिद्धों को; 'णमो आयरियाणं' में सभी आचार्यों को; ' णमो उवझ्झायाणं' में सभी उपाध्यायों को और 'णमो लोए सव्व साहूणं' में लोक के समस्त साधुओं को नमस्कार कर लिया गया। इसमें यह भी भेद नहीं किया गया कि जैन या किसी विशेष संप्रदायों के ही आचार्यों, उपाध्यायों और साधुओं को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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