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________________ ३८८ चिंतन की मनोभूमि राह भूली दुनिया को बहुत कुछ प्रकाश दे सकते हैं। आज के विश्व की पीड़ाओं का आध्यात्मिक निदान यह है, कि अभिनव मनुष्य अतिभोगी हो गया है। वह अपनी रोटी दूसरों के साथ बाँट कर नहीं खाना चाहता। उसे हर हालत में पूरी रोटी चाहिए, भले ही उसे भूख आधी रोटी की ही क्यों न हो। मेरा अपना विचार यह है कि भारतीय संस्कृति में जो रूढ़िवादिता आ गई है, यदि उन्हें दूर किया जाए तो भारत के पास आज भी दूसरों को देने के लिए बहुत कुछ शेष बचा रह सकता है। विश्व की भावी एकता की भूमिका, भारत की सामासिक संस्कृति ही हो सकती है। जिस प्रकार भारत ने किसी भी धर्म का दलन किए बिना, अपने यहाँ धार्मिक एकता स्थापित की, जिस प्रकार भारत ने किसी भी जाति की विशेषता नष्ट किए बिना, सभी जातियों को एक संस्कृति के सूत्र में आबद्ध किया, उसी प्रकार भारतीय संस्कृति के उदार विचार इतने विराट् एवं विशाल रहे हैं कि उसमें संसार के सभी विचारों का समाहित हो जाना असम्भव नहीं है। ऋषभदेव से लेकर राम तक और राम से लेकर वर्तमान में गाँधी-युग तक भारतीय संस्कृति सतत् गतिशील रही है। ठीक है कि बीच-बीच में उसमें कहीं रुकावटें भी अवश्य आती रही हैं. किन्त वे रुकावटें उसके गन्तव्य पथ को बदल नहीं सकी। रुकावट आ जाना एक अलग बात है और पथ को छोड़कर भटक जाना एक अलग बात है। हजारों और लाखों वर्षों की इस भारत की प्राचीन संस्कृति में वह कौन तत्त्व है, जो इसे अनुप्राणित और अनुप्रेरित करता रहा है ? यह एक विकट प्रश्न है। मेरे विचार में, कोई ऐसा तत्त्व अवश्य होना चाहिए, जो युग-युग में विभिन्न धाराओं को मोड देकर उसकी एक विशाल और विराट धारा बनाता रहा हो। प्रत्येक संस्कृति का और प्रत्येक सभ्यता का अपना एक प्राण-तत्त्व होता है, जिसके आधार पर वह संस्कृति और सभ्यता तन कर खड़ी रहती है और संसार के विनाशक तत्त्वों को चुनौती देती रहती है। रोम और मिस्र की संस्कृति धूलिसात् हो चुकी है, जबकि वे संस्कृतियाँ भी उतनी ही प्राचीन थीं, जितनी कि भारत की संस्कृति। भारतीय संस्कृति का प्राणतत्त्व : भारत की संस्कृति का मूल-तत्त्व अथवा प्राणतत्त्व है—अहिंसा और अनेकान्त, समता और समन्वय। वस्तुतः विभिन्न संस्कृतियों के बीच सात्विक समन्वंय का काम अहिंसा और अनेकान्त के बिना नहीं चल सकता। तलवार के बल पर हम मनुष्य को विनष्ट कर सकते हैं, उसे जीत नहीं सकते। असल में मनुष्य को सही रूप में जीतना, उसके हृदय पर अधिकार पाना है; और उसका शाश्वत उपाय समर-भूमि की रक्तधारा से लाल कीच नहीं, सहिष्णुता का शीतल प्रदेश ही हो सकता है। आज से ही नहीं, अनन्तकाल से भारत अहिंसा और अनेकान्त की साधना में लीन रहा है। अहिंसा और अनेकान्त को समता और समन्वय भी कहा जा सकता है। अहिंसा और अनेकान्त पर किसी सम्प्रदाय विशेष का लेबिल नहीं लगाया जा सकता। ये दोनों तत्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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