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संस्कृति और सभ्यता ३८९ भारतीय संस्कृति के कण-कण में रम चुके हैं और भारत के कोटिशः लोगों के अंतर्मन में प्रवेश पा चुके हैं। भले ही कुछ लोगों ने यह समझ लिया हो कि अहिंसा और अनेकान्त, जैन धर्म के सिद्धान्त हैं। बात वस्तुतः यह है कि सिद्धान्त सदा अमर होते हैं, न वे कभी जन्म लेते हैं और न वे कभी मरते हैं। अहिंसा और अनेकान्त को श्रमण भगवान् महावीर ने जन-चेतना के समक्ष प्रस्तुत किया एवं प्रकट किया, इसका अर्थ यह नहीं है कि वह जैन धर्म के ही सिद्धान्त हैं, बल्कि सत्य यह है कि वे भारत के और भारतीय संस्कृति के अमर सिद्धान्त हैं। क्योंकि भगवान् महावीर और जैन धर्म अभारतीय नहीं थे। यह बात अलग है कि भारत की अहिंसा-साधना जैन धर्म में अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँची और जैन धर्म में भी समन्वयात्मक विचार का उच्चतम शिखर-अनेकान्तवाद अहिंसा का ही चरम विकास है। अनेकान्तवाद नाम यद्यपि
जैनाचार्यों के द्वारा प्रस्तुत किया गया है, किन्तु जिस स्वस्थ दृष्टिकोण की ओर यह सिद्धान्त संकेत करता है, वह दृष्टिकोण भारत में आदिकाल से ही विद्यमान था। भारतीय संस्कृति में अहिंसा एवं अनेकान्त :
सहिष्णुता, उदारता, सामासिक संस्कृति, अनेकान्तवाद, समन्वयवाद, अहिंसा और समता_ये सब एक ही तत्त्व के अलग-अलग नाम हैं। अनेकान्तवादी वह है, जो दुराग्रह नहीं करता। अनेकान्तवादी वह है, जो दूसरों के मतों को भी आदर से देखना और समझना चाहता है। अनेकान्तवादी वह है, जो अपने सिद्धान्तों को भी निष्पक्षता के साथ परखता है। अनेकान्तवादी वह है, जो समझौते को अपमान की वस्तु नहीं मानता। सम्राट अशोक और सम्राट हर्षवर्धन बौद्धिक दृष्टि से अहिंसावादी और अनेकान्तवादी ही थे, जिन्होंने एक सम्प्रदाय विशेष में रहकर भी सभी धर्मों की समान भाव से सेवा की। इसी प्रकार मध्ययुग में सम्राट अकबर भी निष्पक्ष सत्यशोधक के नाते अनेकान्तवादी था, क्योंकि परम सत्य के अनुसन्धान के लिए उसने आजीवन प्रयत्न किया था। परमहंस रामकृष्ण सम्प्रदायातीत दृष्टि से अनेकान्तवादी थे, क्योंकि हिन्दू होते हुए भी सत्य के अनुसन्धान के लिए उन्होंने इस्लाम और ईसाई मत की भी साधना की थी और गाँधी जी का तो एक प्रकार से सारा जीवन ही अहिंसा और अनेकान्त के महापथ का यात्री रहा है। मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि अहिंसा और अनेकान्त के बिना तथा समता और समन्वय के बिना भारतीय संस्कृति चिरकाल तक खड़ी नहीं रह सकती। जन-जन के जीवन को पावन बनाने के लिए, समता और समन्वय की बड़ी आवश्यकता है। विरोधों का परिहार करना तथा विरोध में से भी विनोद निकाल लेना, इसी को समन्वय कहा जाता है। समन्वय कुछ बौद्धिक सिद्धान्त नहीं है, वह तो मनुष्यों की इस जीवन भारती का जीता-जागता रचनात्मक सिद्धान्त है। समता का अर्थ है-स्नेह, सहानुभूति और सद्भाव। भला, इस समता के बिना मानव-जाति कैसे सुखी और समृद्ध हो सकती है ? परस्पर की कटुता और कठोरता को दूर करने के लिए, समता की बड़ी आवश्यकता है। .
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