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________________ - ३७६ चिंतन की मनोभूमि जाता, तब तक उसका यह घोषित करना कि हम पूर्णरूपेण सत्य हैं और दूसरा गलत, ऐसा कहना बिलकुल सही नहीं होता क्योंकि अन्य सभी सिद्धान्त गलत हैं, ऐसा तो तभी कहा जा सकता है, जब सभी सिद्धान्तों को पूर्णत: जान लिया जाए क्योंकि एक वस्तु के अनेक विधायक एवं निषेधात्मक सम्बन्ध होते हैं जिन्हें जानना सामान्य व्यक्ति के लिए असम्भव होता है। हाँ, जो सर्वज्ञ हैं, उनकी तो बात ही कुछ और है। फिर कोई कैसे कह सकता है कि वह स्वयं पूर्णतः ठीक है और दूसरे गलत। अतः सीमित ज्ञान की अभिव्यक्ति के लिए स्यादवाद का जो सिद्धान्त बताता है कि यदि कोई सत्य है, तो किसी खास सीमा तक अथवा किसी खास सम्बन्ध में; और इस चीज को ध्यान में रखते हुए ही उसे अपने ज्ञान की अभिव्यक्ति करनी चाहिए। - "आज समय आ गया है कि हम एकता की भावना में इकट्ठे हों, ऐसी एकता को यह समृद्धि समेटती है जिसमें दूसरे धार्मिक विश्वासों की धार्मिक यथार्थताएँ नष्ट न हों, बल्कि एक सत्य को मूल्यवान अभिव्यक्ति के रूप में संजोयी जाएँ। हम उन यथार्थ और स्वतः स्फूर्त प्रवृत्तियों को समझते हैं जिन्होंने विभिन्न धार्मिक विश्वासों को रूप दिया। हम मानवीय प्रेम के उस स्पर्श, करुणा और सहानुभूति पर जोर देते हैं जो धार्मिक आस्थाओं के कृति-व्यक्तित्वों की कृतियों से भरी पड़ी हैं। धार्मिक आयाम के अतिरिक्त मनुष्य के लिए कोई भविष्य नहीं है। धर्म की तुलनात्मक जानकारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्त में अनन्य आस्था नहीं रख सकता। हम जिस संसार में श्रम करते हैं उसके साथ हमें एक संवाद स्थापित करना चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं कि हम धर्मों की लक्षणहीन एकता के लिए काम करें। हम उस भिन्नता को नहीं खोना चाहते जो मूल्यवान आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि को घेरती है। चाहे पारिवारिक जीवन में हो या राष्ट्रों के जीवन में या आध्यात्मिक जीवन में, यह भेदों को एक साथ मिलाती है, जिससे कि प्रत्येक की सत्यनिष्ठा बनी रह सके। एकता एक तीव्र यथार्थ होना चाहिए, मात्र मुहावरा नहीं। मनुष्य अपने को भविष्य के सभी अनुभवों के लिए खोल देता है। प्रयोगात्मक धर्म ही भविष्य का धर्म है। धार्मिक संसार का उत्साह इसी ओर जा रहा है।" निष्कर्षतः हम यह कह सकते हैं कि सभी धर्मों के सिद्धान्तों को, उनको आस्था को दृढ़ करना है। यह वह पृष्ठभूमि है, जहाँ पर हम विश्वधर्म के महान् धरातल पर खड़े होते हैं। हमें आज, सिद्धान्त के धर्म को, ग्रन्थों में वर्णित धर्मकाण्डों को एक तरफ रखकर जीवन-व्यवहार्य धर्म की प्ररूपणा करनी है, उन्हें कार्यान्वित १. आधुनिक युग में धर्म -डा. एस. राधाकृष्णन् पृ. ९४-९५ (हि. अनु.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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