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सर्वधर्म समन्वय ३७५ प्रश्न उठता है कि शाश्वत धर्म आखिर है क्या? इस प्रश्न के उत्तर के रूप में यदि यह कहा जाए कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह ही मौलिक .. अथवा शाश्वत धर्म है, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी; क्योंकि धर्म या आचार सम्बन्धी जो भी अन्य नियम हैं, वे इन्हें ही केन्द्र मानकर इनके पास अथवा दूर नाचते-से दिखाई पड़ते हैं। इन पाँच सिद्धान्तों के अलावा जो भी धर्म या आचार सम्बन्धी नियम हैं, वे अमौलिक हैं, ऐसा भी कहना कोई अनुचित न होगा। पर अमौलिक होते हुए भी ऐसे सिद्धान्त समाज पर अपना कम प्रभाव नहीं रखते, क्योंकि यही साम्प्रदायिकता को जन्म देने वाले होते हैं।
जब धर्म सिद्धान्त से व्यवहार की ओर आता है, तब उसे देश और काल की मर्यादा से सम्बन्धित होना पड़ता है और यहीं से सम्प्रदाय या संघ का प्रारम्भ होता है। सम्प्रदाय की मान्यता वहाँ तक सही है, जहाँ तक कि इसका उद्देश्य धर्म के मौलिक सिद्धान्तों का प्रचार या प्रसार करना है, लेकिन जब वह विभिन्न रूढ़ियों को जन्म दे देता है तो परिणाम कुछ और ही निकल आता है। कारण, एक दिन वे ही रूढ़ियाँ इस तरह बलवती हो जाती हैं कि वे धर्म के मौलिक सिद्धान्तों को ही उसी प्रकार ढंक लेती हैं जैसे सूर्य को काले बादल ढंक लेते हैं, तो निश्चय ही सम्प्रदाय एक गलत राह पर आ जाता है। सूर्य के बादलों से ढंक जाने के बाद जो दशा पृथ्वी की होती है, वही दशा शाश्वत धर्म के छुप जाने से समाज की होती है और ऐसी स्थिति किसी समाज के लिए ही क्या बल्कि पूरे संसार के लिए बड़ी घातक होती है।
अब प्रश्न उठता है कि रूढ़िग्रस्त साम्प्रदायिकता को दूर करने का कौन-सा उपाय है ? रूढ़ि पैदा होने के दो कारण हैं—अन्धविश्वास और अपने सिद्धान्त को पूर्ण, सच एवं सर्वमान्य समझना। यदि प्राचीन काल में धर्माचार्यों ने कोई नियम बना दिया, तो आज भी हम उन सारे नियमों को ढोते रहें, यह आवश्यक नहीं। ऐसा करने का अर्थ यह नहीं होता कि पूर्व-प्रतिपादित आचारों को बदल कर हम पूर्णत: उन्हें एक नया रूप दें अथवा आचारों का विरोध करें। जिन विधि-विधानों का वर्तमान से मेल नहीं हो रहा यानि जिनका देश-काल से समुचित सम्बन्ध स्थापित नहीं हो रहा है, उन्हें देश-काल के अनुसार रूप देने का सफल प्रयास अपेक्षित है; क्योंकि साम्प्रदायिक या अमौलिक नियमों के आधार ही होते हैं देश और काल ।
जहाँ तक अपने आपको पूर्ण मानने का प्रश्न है, यह भी किसी धर्म या समाज के लिए हितकर नहीं होता। इसी गलती को दूर करने के लिए जैनाचार्यों ने अनेकान्त तथा स्याद्वाद के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। जब तक व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं हो
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