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________________ सर्वधर्म समन्वय वह धारणाद् धर्मानित्याहु – जो धारण करता है वही धर्म है । यह उक्ति बहुत ही प्रसिद्ध है और इसकी प्रसिद्धि का कारण मात्र इसकी यथार्थता है कुछ और नहीं । किसी वस्तु को धारण करने का अर्थ होता है, उसके अस्तित्व को कायम रखना । हर एक पदार्थ में चाहे वह चल हो या अचल, चेतन हो या अचेतन, कोई न कोई ऐसा तत्त्व अवश्य होता है, जिसके कारण उसका अस्तित्व बना रहता है। यदि उस तत्त्व को उस वस्तु में से हटा दिया जाए तो निश्चित ही वह विनष्ट हो जाएगा, उसकी सत्ता नाम की कोई भी चीज नहीं रह जाएगी। वह तत्त्व सदा एक-सा रहता है, कभी मिटता नहीं, भले ही उसके बाह्यरूप क्यों न बदल जाएँ। स्वर्ण से कभी कंगन बनता है, तो कभी अँगूठी, किन्तु स्वर्णत्व जो उसका वास्तविक गुण है, वह कभी नहीं बदलता । मनुष्य के साथ भी यही बात है । उसकी आत्मा अमिट है, अपरिवर्तनशील है, पर उसका शरीर जिसे उसकी बाह्य रूपरेखा कहते हैं, हमेशा बदलता रहता है। जब-जब वह नया जन्म धारण करता है, तब-तब उसका रूप बदलता जाता है। यदि आत्मा न हो, तो शरीर चेतनाशून्य और उपयोगिता रहित हो जाता है। ४० इसी प्रकार धर्म का जो मौलिक तत्त्व है, वह उसकी आत्मा है और जो सम्प्रदाय है, वह इसका शरीर है। आत्मा की तरह किसी भी धर्म का जो मौलिक सिद्धान्त है, वह बदलता नहीं और उसकी व्यापकता किसी एक स्थान या काल तक ही सीमित नहीं होती क्योंकि धर्म का जो वास्तविक रूप है, वह शाश्वत है, सर्वव्यापी है। यदि कोई सीमा इसमें दिखाई पड़ती है, तो वास्तव में उसका कारण हमारा दृष्टिगत वैविध्य है । ब्राह्मण कहते हैं, जो बातें वेदों में कही गई हैं, वे ही सत्य हैं, वेदों में जिन सिद्धान्तों का विवेचन हुआ है वही धर्म है, शेष जो भी है, उसे धर्म की सीमा में स्थान प्राप्त नहीं होता। जैन मतावलम्बी कहते हैं कि मात्र आगम ही, जिनमें भगवान् महावीर की वाणी संकलित है, धर्म के स्रोत हैं । बौद्ध धर्म के मानने वालों का कहना है कि पिटकों में वर्णित भगवान् बुद्ध के उपदेश के सिवा और कुछ धर्म नहीं कहला सकता। ईसाई मतानुयायी बाइबिल को ही सब कुछ मानते हैं यही बात इस्लाम - मतावलम्बियों के साथ है। ये कहते हैं कि कुरान ही धर्म का एकमात्र आधार है । किन्तु तटस्थ होकर सभी धर्मों या मतों को देखने से लगता है कि . सब में वही तत्त्व प्राण की तरह काम कर रहा है, जो शाश्वत है, सदा एक-सा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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