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________________ अपरिग्रह ६७३ पूर्ण-संयमी को धन-धान्य और नौकर-चाकर आदि सभी प्रकार के परिग्रहों का त्याग करना होता है। समस्त पाप-कर्मों का परित्याग करके सर्वथा निर्ममत्व होना तो और भी कठिन बात है। परिग्रह-विरक्त मुनि जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण आदि वस्तुएँ रखते हैं, वे सब एकमात्र संयम की रक्षा के लिए ही रखते हैं—काम में लाते हैं। इनके रखने में किसी प्रकार की आसक्ति का भाव नहीं है। ज्ञानी पुरुष, संयम-साधक उपकरणों के लेने और रखने में कहीं भी किसी प्रकार का ममत्व नहीं करते और तो क्या, अपने शरीर तक पर भी ममता नहीं रखते। सच्चे अर्थ में अपरिग्रह की यही बहुत बड़ी मर्यादा है। अपरिग्रह-के संदर्भ में भी यही बातें आएँगी। दर्शन शास्त्र के आचार्यों से पूछा कि परिग्रह क्या है ? तो उन्होंने बताया- "मूर्छा परिग्रहः' मन की ममता, आसक्ति ही परिग्रह है। वस्तु का त्याग अपरिग्रह नहीं हो सकता है। मोह या आसक्ति का त्याग अपरिग्रह है। प्रश्न हो सकता है कि वस्तु का छोड़ना क्या है ? आप कहते हैं मैंने कपड़े का त्याग कर दिया, धन का त्याग कर दिया, मकान का त्याग कर दिया, किन्तु मैं पूछता हूँ कि क्या वह कपड़ा आपका था? वह धन और मकान आपका था? आप चैतन्य हैं, वह वस्तु जड़ है, जड़ और चैतन्य का क्या सम्बन्ध ? गधे और घोड़े का क्या रिश्ता, क्या नातेदारी? जड़ पर चेतन का कोई अधिकार नहीं और चेतन पर जड़ का कोई अधिकार नहीं, फिर यह त्याग किसका? आपका अपना क्या है? ज्ञानमय आत्मा अपना है, अखण्ड चैतन्य अपना है ? इसका त्याग हो नहीं सकता। और, वस्तु का तो त्याग, वास्तव में त्याग है ही नहीं। तो प्रश्न यह है कि फिर त्याग का, अपरिग्रह का क्या मतलब हुआ? इसका अर्थ है कि वस्तु के प्रति जो ममता बुद्धि है, राग है, मूर्छा है, उसका त्याग आप कर सकते हैं और वही वास्तव में त्याग है, अपरिग्रह है। ममता हट जाने पर, राग बुद्धि मिट जाने पर शरीर रहते हुए भी अपरिग्रही अवस्था है, देह होते हुए भी देहातीत अवस्था है, श्रीमद्रामचन्द्र के शब्दों में-"देह छता जेहनी दशा, बरतै देहातीत।" देह के होते हुए भी इसके प्रति निष्काम और निर्विकल्प अवस्था जब प्राप्त हो जाती है, तब सम्पूर्ण अपरिग्रह की साधना होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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