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३७२ चिंतन को मनोभूमि पिशाच को तुम देवतुल्य समझ कर कब तक पूजते रहोगे और नमस्कार कर उसके आगे कब तक अपनी नाक रगड़ते रहोगे।'
यह परिग्रह काम, क्रोध, मान और लोभ का जनक है। धर्म रूपी कल्पवृक्ष को जला देने वाला है। न्याय, क्षमा, सन्तोष, नम्रता आदि सद्गुणों को खा जाने वाला कोड़ा है। परिग्रह बोधबीज का यानि समकित का विनाशक है और संयम, संवर तथा ब्रह्मचर्य का घातक है। यह जन्म, जरा और मरण के भय को पैदा करने वाला है। मोक्षमार्ग में विघ्न खड़ा करने वाला और कड़वे किंपाक फलों को देने वाला है। चिन्ता
और शोक रूपी सागर को बढ़ाने वाला, तृष्णा रूपी विषवल्लरी को सींचने वाला, कूड़-कपट का भण्डार और क्लेश का घर है।
कुछ लोग परिग्रह की मर्यादा तो ले लेते हैं, पर उसमें छूट बहुत रख लेते हैं। ऐसा करने से व्रत का आशय सिद्ध नहीं होता है। सचमुच देखा जाए तो यह व्रत परिग्रह को घटाने के लिए है। हमारे पास जितना हो, उसमें से भी धीरे-धीरे कम करते जाना चाहिए। परिग्रह कम करते जाने पर ही परिग्रह परिमाण व्रत तेजस्वी बन सकता है। मानव समाज को सुखी बनाने के लिए और विविध संघर्षणों से मुक्त करने के लिए इस व्रत की नितान्त आवश्यकता है। अपरिग्रह के अतिचार : ___ "क्षेत्र-वस्तु-हिरण्य-सुवर्ण धन-धान्य-दासीदास, कुप्यप्रमाणतिक्रमाः"
इस व्रत के पाँच अतिचार हैं। खेत, घर, धन-धान्य, दास-दासी, सोना-चाँदी आदि की बँधी हुई मर्यादा या उल्लंघन का करना इस व्रत के अतिचार हैं। इन अतिचारों से बचते हुए क्रमशः परिग्रह को कम करते जाना ही आत्म-शान्ति को पाने का और विकास करने का राजमार्ग है।
बारह व्रतों में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पाँच व्रत मूल व्रत हैं। धर्म रूपी वृक्ष के ये मूल हैं ? सामायिक, पौषध, तप आदि नियमों को तो उत्तर व्रत के रूप में माना गया है। धर्मरूपी वृक्ष के ये पत्ते हैं। मूल व्रतों के साथ ही इनका पालन करना लाभदायी होता है। उनके अभाव में इनका पालन करना, मूल को छोड़कर पत्तों को पानी पिलाने का प्रयत्न करना जैसा है। अतः मनुष्य को मूल व्रतों की तरफ पहले ध्यान देना चाहिए।
प्राणिमात्र के संरक्षक भगवान् महावीर ने कुछ वस्त्र आदि स्थूल पदार्थों को परिग्रह नहीं बतलाया है। वास्तविक परिग्रह तो उन्होंने किसी भी पदार्थ पर मूर्छा का आसक्ति का रखना हटाया है।
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