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अपरिग्रह
जड़ वस्तुओं के अधिक संग्रह से मनुष्य की आत्मा दब जाती है और उसका विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है अत: आत्मविकास के लिए अपरिग्रह की विशेष आवश्यकता होती है।
उत्तराध्ययन सूत्र के चौथे अध्ययन में भगवान महावीर ने कहा है कि "हे प्रमादी जीव! इस लोक या परलोक में धन शरण देने वाला नहीं है। अन्धकार में जैसे दीपक बुझ जाये, तो देखा हुआ मार्ग भी बिन देखे जैसा हो जाता है, वैसे ही पौद्गलिक वस्तुओं के मोहांधकार में न्याय मार्ग का देखना और न देखना दोनों ही समान हो जाते हैं। ममत्ववृति के त्याग से ही धर्म-मार्ग का आचरण किया जा सकता है।"१
संग्रहखोरी, संचयवृत्ति या पूँजीवाद आज के सभी पापों के जनक हैं। कीट से लेकर राजा तक सभी आज संग्रह करने में ही मग्न हैं। मनुष्य चाहे जितने छोटे-बड़े व्रत-नियम करे, पर संग्रहवृत्ति पर नियन्त्रण न रखे, तो वह सच्चे अर्थों में अपना विकास नहीं कर सकेगा।
शंकराचार्य ने ठीक ही कहा है कि 'अर्थमनर्थ भावय नित्यम्'। अर्थ सचमुच अनर्थ ही है। शास्त्रकारों ने 'अर्थ' के इतने अधिक अनर्थ बताए हैं, फिर भी इस अर्थप्रधान युग में पैसों को ही प्राण समझा जा रहा है। अपना कोई प्रियजन मर जाये, तो उसका दुःख छह महीने बाद भुला दिया जाता है, परन्तु पैसों का नुकसान होता है, तो उसका दु:ख सारी जिन्दगी तक मनुष्य भूलता नहीं है। मनुष्य की आज धन के लिए जितनी प्रबल आकाँक्षा है, उतनी अन्य किसी के लिए प्रतीत नहीं होती है। सन्त तुकाराम ने अपरिग्रह के सम्बन्ध में कहा है
"तुका म्हणे धन आम्हां गोमाँसा समान।" अर्थात्-धन का आवश्यकता से अधिक स्नेह करना गोमांस की तरह त्याज्य होना चाहिए।
बिनोवा भावे ने कहा है कि 'जिस पैसे की तुम परमेश्वर की तरह पूजा करते हो' वह पैसा परमेश्वर नहीं, पिशाच है, जिसका भूत तुम पर सवार हो गया है। जो रात-दिन तुमको सताता रहता है और तनिक भी आराम नहीं लेने देता है। पैसा रूपी
१. वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमम्मि लोए अदुवा परत्था।
दीवप्पणठेव अणंत मोहे, नेयाउयं दद्रु-मदद्रुमेव॥
-उत्तराध्ययन सूत्र, ४
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