________________
सर्वधर्म समन्वय |३७७ करना है और सबकी मूल आस्था को एक साथ संघबद्ध करके समन्वय का आदर्श परिचालित करना है। पारस्परिक सम्मान एवं प्रेम की उदात्त भावना, इस दशा में हमारी महान् सहयोगी बनकर कृष्ण-सरीखे सारथी का काम करेगी। वहीं से धर्म का एक विराट रूप, सर्वधर्म समन्वय की भावना से उद्भूत हो सकता है।
इस प्रकार अपने अस्तित्त्व को कायम रखने के लिए यह आवश्यक है कि कोई भी धर्म समन्वय का स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाए। और, समन्वय का सिद्धान्त तभी सुदृढ़ बन सकता है जबकि अपने आपको ही पूर्ण सत्य और दूसरों को सर्वांशतः गलत मानने की आदत दूर हो यानि दूसरों के विचार को भी सही माना जाए। साथ ही देश और काल के साथ अपने को अभियोजित किया जाय अर्थात् देश और काल के साथ भी समन्वय किया जाए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org