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________________ ३६२ चिंतन ली मनोभूमि कि यह शरीर अशचि एवं अपवित्र है क्योंकि यह शक्र और शोणित से बना है, जो अपने आप में स्वयं ही अपवित्र हैं। इस शरीर का दूसरा आधार आहार है। आहार भी शरीर के अन्दर पहुँच कर रस एवं खल आदि भागों में परिणत होता है। खल भाग से मल एवं मूत्र बनते हैं और रस भाग से रक्त, माँस, मज्जा एवं वीर्य आदि बनते हैं। इस अशुचिता के कारण शरीर कैसे पवित्र हो सकता है? शरीर में जितने भी अशुचि पदार्थ हैं, यह शरीर उन सबका आधार है। कान का मल, आँख का मल, दाँत का मल और पसीना ये सब शरीर के अन्दर से पैदा होते हैं और बाहर निकलकर भी शरीर को अपवित्र ही करते हैं। जो शरीर अन्दर और बाहर दोनों ओर से अशुचि एवं अपवित्र है, उसके क्षणिक रूप और सौन्दर्य पर मुग्ध होना एक प्रकार की विचार-मूढ़ता ही है। इस शरीर का सब कुछ क्षणभंगुर है। क्षण-क्षण में परिवर्तित होने वाला है। मन से कम इस शरीर की चार अवस्थाएँ शास्त्रकारों ने मानी हैं शैशव, यौवन, प्रौढ़ और वृद्धत्वभाव। इन चार अवस्थओं में कोई-सी भी अवस्था स्थायी नहीं है। ऋतुकाल में पिता के वीर्य-बिन्दुओं के और माता के रजकणों के आधान से लेकर, यह शरीर क्रम से अनेक अवस्थाओं में अनुबद्ध हुआ करता है, जिसका वर्णन शरीर-शास्त्र में विस्तार के साथ किया गया है। शरीर की इन विभिन्न अवस्थाओं के देखने से और जानने से विचार आता है कि मनुष्य इतने अपवित्र शरीर पर भी आसक्ति और ममता क्यों करता है ? अशुचि भावना का चिन्तन मनुष्य को राग से विराग की ओर ले जाता है। संवेग और वैराग्य : ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने मन को सदा संवेग और वैराग्य में संलग्न रखे। किन्तु प्रश्न होता है कि मनुष्य के मानस में संवेग और वैराग्य की भावना को स्थिर कैसे किया जाए? इसके समाधान में आचार्य उमास्वाति ने स्वप्रणीत 'तत्त्वार्थ-भाष्य' के सातवें अध्याय में वर्णन किया है कि संवेग और वैराग्य को स्थिर करने के लिए ब्रह्मचर्य के साधक को अपने मानस में शरीर और जगत् के स्वभाव का चिन्तन करते रहना चाहिए। जगत् अर्थात् संसार का चिन्तन इस प्रकार करना चाहिए कि यह संसार षड्द्रव्यों का समूह रूप है। द्रव्यों का प्रादुर्भाव और तिरोभाव-उत्पाद और विनाश निरन्तर होता रहता है। संसार का स्वभाव है-बनना और बिगड़ना। संसार के नाना रूप दृष्टिगोचर होते हैं। उनमें से किसको सत्य मानें ! संसार का जो रूप कल था, वह आज नहीं है और जो आज है, वह कल नहीं रहेगा। यह विश्व द्रव्य रूप में स्थिर होते हए भी पूर्वपर्याय के विनाश और उत्तरपर्याय के उत्पाद से नित्य निरन्तर परिवर्तनशील है। इस संसार में एक भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जो क्षणभंगुर और परिवर्तनशील न हो। जब संसार का एक भी पदार्थ स्थिर और शाश्वत नहीं है, तब भौतिक तत्त्वों से निर्मित यह देह और उसका रूप स्थिर और शाश्वत कैसे हो सकता है ? बाल अवस्था में जो शरीर सुन्दर लगता है, यौवनकाल में जो कमनीय लगता है, वही तन वृद्धावस्था में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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