________________
ब्रह्मचर्य : सिद्धान्त एवं साधना | ३६१ एवं निन्दनीय स्थिति को देखकर एवं जानकर, इसे भोग - वासना में न लगाकर, परमार्थ - भाव की साधना में लगाता है। विवेकशील मनुष्य विचार करता है कि इस अपवित्र शरीर की उपलब्धि के प्रारम्भ में भी दुःख था, अन्त में भी दु:ख होगा और मध्य में भी यह दुःख रूप ही है। भला जो स्वयं दुःख रूप है, वह सुख रूप कैसे हो सकता है ? इस अपवित्र तन से सुख की आशा रखना मृग मरीचिका के तुल्य है। इस अशुचि भावना के चिंतन का फल यह है कि मनुष्य के मानस में त्याग और वैराग्य के विचार तरंगित होने लगते हैं और वह अपनी वासना पर विजय प्राप्त कर लेता है । तत्त्वार्थ-भाष्य :
आचार्य उमास्वाति ने स्वप्रणीत 'तत्त्वार्थ - भाष्य' में ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाओं का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। उसमें कहा गया है कि ब्रह्मचर्य व्रत की साधना करने वाले साधक के लिए आवश्यक है कि वह अनुदिन ब्रह्मचर्यव्रत की पाँच भावनाओं का चिन्तन और मनन करे। जो साधक प्रतिदिन इन पाँच भावनाओं का चिन्तन और मनन करता है, उसकी वासना धीरे-धीरे क्षीण होने लगती है । ब्रह्मचर्यव्रत की पाँच भावनाएँ इस प्रकार हैं
१. जिस स्थान में स्त्री, पशु और नपुंसक रहते हों, ऐसे स्थान पर ब्रह्मचारी को नहीं रहना चाहिए। जिस आसन एवं शय्या पर स्त्री बैठी हो अथवा पुरुष बैठा हो, तो दोनों को एक दूसरे के शय्या एवं आसन पर नहीं बैठना चाहिए !
-
२. राग - भाव से पुरुष को स्त्री - कथा और स्त्री को पुरुष की कथा नहीं करनी चाहिए क्योंकि इससे राग-भाव बढ़ता है।
३. स्त्रियों के मनोहर अंग एवं उपांगों का तथा कटाक्ष और विलासों का अवलोकन नहीं करना चाहिए। राग-भाव के वशीभूत होकर बार-बार पुरुषों को स्त्रियों की ओर तथा स्त्रियों को पुरुषों की ओर नहीं देखना चाहिए ।
४. पूर्व - सेवित रति- सम्भोग आदि का स्मरण नहीं करना चाहिए और भविष्य के लिए भी इनकी अभिलाषा नहीं करनी चाहिए।
५. ब्रह्मचर्य व्रत की साधना करने वाले को, भले ही वह स्त्री हो या पुरुष, प्रणीत ( गरिष्ठ), कामोत्तेजक सरस एवं मधुर भोजन प्रतिदिन नहीं करना चाहिए । यह पाँच ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाएँ हैं। इनका निरंतर चिन्तन करते रहने से ब्रह्मचर्य स्थिर होता है ।
आचार्य उमास्वाति ने स्वप्रणीत 'तत्त्वार्थ-भाष्य' के नवम अध्याय में द्वादश भावनाओं का भी सुन्दर वर्णन किया है। अशुचि भावना का वर्णन करते हुए कहा है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org