SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६० चिंतन की मनोभूमि अशुचिपूर्ण शरीर पर मोह करता है। यह शरीर तो अशुचि, अपवित्र और दुर्गन्धयुक्त है । इस प्रकार अशुचि भावना के चिन्तन से साधक के मानस में त्याग और वैराग्य की भावना प्रबल होती है। इससे रूप की आसक्ति मन्द होती है। जिससे ब्रह्मचर्य के पालन में सहयोग मिलता है। योगशास्त्र : आचार्य हेमचन्द्र ने अपने 'योगशास्त्र' के चतुर्थ प्रकाश में द्वादश भावनाओं का बड़ा सुन्दर एवं मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। उसमें छठी अशुचि - भावना का वर्णन करते हुए कहा गया है कि यह शरीर जिसके रूप और सौन्दर्य पर मनुष्य अहंकार एवं आसक्ति करते हैं, वह वास्तव में क्या है? वह शरीर रस, रक्त, माँस, मेद (चर्बी), अस्थि (हाड़), मज्जा, वीर्य, आँत एवं मल-मूत्र आदि अशुचि पदार्थों से परिपूर्ण है । चर्म के पर्दे को हटाकर देखा जाए, तो यह सब कुछ उसमें देखने को मिलेगा । अतः यह शरीर किस प्रकार पवित्र हो सकता है ? यह तो अशुचि एवं मलिन है । इस देह के नव द्वारों से सदा दुर्गन्धित रस झरता रहता है और इस रस से यह शरीर सदा लिप्त रहता है। इस अशुचि शरीर में और अपवित्र देह में सुन्दरता और पवित्रता की कल्पना करना, ममता और मोह की विडम्बना मात्र है। इस प्रकार निरन्तर शरीर की अशुचि का चिन्तन करते रहने से मनुष्य के मन में वैराग्य - भावना तीव्र होती है और काम ज्वर उपशान्त हो जाता है। - ज्ञानार्णव : आचार्य शुभचन्द्र ने अपने 'ज्ञानार्णव' में जिसका दूसरा नाम 'योग- प्रदीप' है, कहा है कि इस संसार में विविध प्रकार के जीवों को जो शरीर मिला है, वह स्वभाव से ही गलन और सड़न धर्मी है । अनेक धातु और उपधातुओं से निर्मित है। शुक्र और शोणित से इसकी उत्पत्ति होती है। यह शरीर अस्थि-पंजर है । हाड़, माँस और चर्बी की दुर्गन्ध इसमें से सदा आती रहती है। भला जिस शरीर में मल-मूत्र भरा हो, कौन बुद्धिमान उस पर अनुराग करेगा ? इस भौतिक शरीर में एक भी तो पदार्थ पवित्र और सुन्दर नहीं, जिस पर अनुराग किया जा सके। यह शरीर इतना अपवित्र और अशुचि है कि क्षीर सागर के पवित्र पय से भी यदि इसे धोया जाए तो उसे भी यह अपवित्र बना देता है। इस भौतिक तन की वास्तविक स्थिति पर जरा विचार तो कीजिए, यदि इस शरीर के बाहरी चर्म को हटा दिया जाए, तो मक्खी, कृमि, काग और गिद्धों से इसकी रक्षा करने में कोई समर्थ नहीं हो सकता। यह शरीर अपवित्र ही नहीं है, बल्कि हजारों-हजार प्रकार के भयंकर रोगों का घर भी है। इस शरीर में भयंकर रोग भरे पड़े हैं, इसीलिए तो शरीर को व्याधि का मन्दिर कहा जाता है। बुद्धिमान मनुष्य वह है जो अशुचि भावना के चिन्तन और मनन से शरीर की गर्हित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy