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ब्रह्मचर्य : सिद्धान्त एवं साधना ३५९
इसके अतिरिक्त ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए शास्त्रकारों ने कुछ अन्य उपाय भी बतलाए हैं, जिनका सम्यक् परिपालन करने से ब्रह्मचर्य की साधना दुष्कर नहीं रहती । इन साधनों का अवलम्बन एवं सहारा लेकर साधक सरलता के साथ ब्रह्मचर्य की साधना कर सकता है। यद्यपि समाधि, गुप्ति एवं बाड़ों के नियमों में सभी प्रकार के उपायों का समावेश हो जाता है तथापि एक अन्य प्रकार से भी ब्रह्मचर्य को स्थिर बनाने के लिए उपदेश दिया गया है जिसे भावना कहा जाता है। यह भावनायोग द्वादश प्रकार का है । उस द्वादश प्रकार के भावना - योग में ब्रह्मचर्य से सविशेष रूप से सम्बन्धित अशुचि भावना का वर्णन मूल आगम में, उसके बाद आचार्य हेमचन्द्र के 'योगशास्त्र' में, आचार्य शुभचन्द्र के 'ज्ञानार्णव' में और स्वामी कार्तिकेय विरचित 'द्वादशानुप्रेक्षा' में विस्तार के साथ किया गया है। मनुष्य के मन में जो विचार उठता है, उसी को भावना एवं अनुप्रेक्षा कहा जाता है । परन्तु प्रस्तुत में पारिभाषिक भावना एवं अनुप्रेक्षा का अर्थ है- किसी विषय पर पुनः पुनः चिन्तन करना, मनन करना, विचार करना । 'पुनः पुनश्चेतसि निवेशनं भावना' । आगम में शरीर की अशुचि का विचार इसलिए किया गया है, कि मनुष्य के मन में अपने रूप और सौन्दर्य पर आसक्ति-भाव न हो क्योंकि शरीर ही ममता एवं आसक्ति का सबसे बड़ा केन्द्र है। मनुष्य जब किसी सुन्दर नारी के मोहक रूप एवं सौन्दर्य को देखता है, तब वह मुग्ध होकर अपने अध्यात्म भाव को भूल जाता है । इसी प्रकार नारी भी किसी पुरुष के सौन्दर्य को देखकर मुग्ध बन जाती है। फलतः दोनों के मन में काम - राग की उत्पत्ति हो जाती है। इस स्थिति में ब्रह्मचर्य का परिपालन कैसे किया जा सकता है ? अस्तु, अपने एवं दूसरों के शरीर की आसक्ति एवं व्यामोह को दूर करने के लिए ही शास्त्रकारों ने अशुचि भावना का उपदेश दिया है।
द्वादशानुप्रेक्षा :
स्वामी कार्तिकेय ने अशुचि-भावना का वर्णन करते हुए लिखा है कि- हे साधक ! तू देह पर आसक्ति क्यों करता है? जरा इस शरीर के अन्दर के रूप को तो देख, इसमें क्या कुछ भरा हुआ है। इसमें मल-मूत्र, हाड़-माँस और दुर्गन्ध के अतिरिक्त रखा भी क्या है? चर्म का पर्दा हटते ही इसकी वास्तविकता तेरे सामने आ जाएगी। इस शरीर पर चन्दन एवं कपूर आदि सुगन्धित द्रव्य लगाने से वे स्वयं भी दुर्गन्धित हो जाते हैं। जो कुछ सरस एवं मधुर पदार्थ मनुष्य खाता है, वह सब कुछ शरीर के अन्दर पहुँचकर मलरूप में परिणत हो जाता है और तो क्या, इस शरीर पर पहना जाने वाला वस्त्र भी इसके संयोग से मलिन हो जाता है। हे भव्य ! जो शरीर इस प्रकार अपवित्र एवं अशुचिपूर्ण है, उस पर तू मोह क्यों करता है, आसक्ति क्यों करता है ? तू अपने अज्ञान के कारण ही इस शरीर से स्नेह और प्रेम करता है। यदि इसके अन्दर का सच्चा रूप तेरे सामने आ जाए, तो एक क्षण भी तू इसके पास बैठ नहीं सकेगा। खेद की बात है कि मनुष्य अपने पवित्र आत्म-भाव को भूलकर इस
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