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|३५८ चिंतन की मनोभूमि उत्तराध्ययन सूत्र
१. ब्रह्मचारी स्त्री, पशु एवं नपुंसक-सहित मकान का सेवन न करे। २. स्त्री-कथा न करे। ३. स्त्री के आसन एवं शय्या पर न बैठे। ४. स्त्री के अंग एवं उपांगों का अवलोकन न करे। ५. स्त्री के हास्य एवं विलास के शब्दों को न सुने। ६. पूर्व-सेवित काम-क्रीड़ा का स्मरण न करे। ७. नित्य प्रति सरस भोजन न करे। ८. अति मात्रा में भोजन न करे। ९. विभूषा एवं शृंगार न करे। १०. शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श का अनुपाती न हो। अनगार धर्मामृत : . १. ब्रह्मचारी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तथा शब्द के रसों का पान करने की इच्छा न
करे। २. ब्रह्मचारी वह कार्य न करे, जिससे किसी भी प्रकार के लैङ्गिक विकार होने
की सम्भावना हो। ३. कामोद्दीपक आहार का सेवन न करे। ४. स्त्री से सेवित शयन एवं आसन का उपयोग न करे। ५. स्त्रियों के अंगों को न देखे। ६. स्त्री का सत्कार न करे। ७. शरीर का संस्कार(शृंगार) न करे। ८. पूर्वसेवित काम का स्मरण न करे। ९. भविष्य में काम-क्रीड़ा करने की न सोचे। १०. इष्ट रूप आदि विषयों में मन को संसक्त न करे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मूल आगम और आगमकाल के बाद होने वाले श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आचार्यों ने अपने-अपने समय में समाधि, गुप्ति और बाड़ों का विविध प्रकार से संक्षेप एवं विस्तार में, मूल आगमों का आधार लेकर वर्णन किया है। 'समाधि' का अर्थ है-मन की शान्ति। 'गुप्ति' का अर्थ है विषयों की ओर जाते हुए मन का गोपन करना, मन का निरोध करना। समाधि और गुप्ति के अर्थ में ही मध्यकाल के अपभ्रंश साहित्यकारों ने 'बाड़' शब्द का प्रयोग किया है। अतः तीनों शब्दों का एक ही अर्थ है कि वह उपाय एवं साधन जिससे ब्रह्मचर्य की रक्षा भलीभाँति हो सके।
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