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________________ - ब्रह्मचर्य : सिद्धान्त एवं साधना ३५७/ सकता है। मनुष्य के जीवन का पतन तभी होता है, जब वह अपने अन्दर के आध्यात्म भाव को भूलकर, बाहर के लुभावने एवं क्षणिक भोगविलास में फँस जाता है। विषयासक्त मनुष्य किसी भी प्रकार की आध्यात्म-साधना को करने में सफल नहीं होता, क्योंकि उसके मानस से वासनाओं, कामनाओं और विभिन्न विकल्पनाओं का ताण्डव नृत्य होता रहता है। जो व्यक्ति नाना प्रकार के विकल्प और विकारों में फँसा रहता है, वह ब्रह्मचर्य तो क्या, किसी भी साधना में सफल नहीं हो सकता । समाधि : नव बाड़ : ब्रह्मचर्य की साधना की सफलता के लिए भगवान् महावीर ने दस प्रकार की समाधि और ब्रह्मचर्य की नव बाडों का उपदेश दिया है, जिसका आचरण करके ब्रह्मचर्य-व्रत की साधना करने वाला साधक अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए जिन उपायों एवं साधनों को परम प्रभु भगवान् महावीर ने समाधि और गुप्ति कहा है, लोक-भाषा में उन्हीं को बाड़ कहा जाता है। जिस प्रकार किसान अपने खेत की रक्षा के लिए अथवा बागवान अपने बाग से नन्हे-नन्हे पौधों की रक्षा के लिए उनके चारों ओर काँटों की बाड़ लगा देता है, जिससे कि कोई पशु उस खेत और पौधों को किसी प्रकार की हानि न पहुँचा सके। साधना के क्षेत्र में भी प्रारम्भिक ब्रह्मचर्य रूप बाल-पौधे की रक्षा के लिए, बाड़ की नितान्त आवश्यकता है। भगवान् महावीर ने 'स्थानाङ्ग सूत्र' में समाधि, गुप्ति और बाड़ों का कथन किया है। उत्तरकालीन आचार्यों ने भी अपने-अपने ग्रन्थों में ब्रह्मचर्य की रक्षा के इन उपायों का विविध प्रकार से उल्लेख किया है, जिसे पढ़कर साधक ब्रह्मचर्य की साधना में सफल हो सकता है और अपने मन के विकारों पर विजय प्राप्त कर सकता है। स्थानाङ्ग सूत्र१. ब्रह्मचारी स्त्री से विविक्त शयन एवं आसन का सेवन करने वाला हो। स्त्री, पशु एवं नपुंसक से संसक्त स्थान में न रहे। २. स्त्री-कथा न करे। ३. किसी भी स्त्री के साथ एक आसन पर न बैठे। ४. स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियों का अवलोकन न करे। ५. नित्यप्रति सरस भोजन न करे। ६. अति मात्रा में भोजन न करे। ७. पूर्व-सेवित काम-क्रीड़ा का स्मरण न करे। ८. शब्दानुपाती और रूपानुपाती न बने। ९. साता और सुख में प्रतिबद्ध न हो। १. ब्रह्मचर्य के प्रसंग में यहाँ एवं अन्यत्र जहाँ कहीं पुरुष ब्रह्मचारी के लिए स्त्री-संसर्ग का निषेध किया है, वहाँ स्त्री ब्रह्मचारियों के लिए पुरुष-संसर्ग का भी निषेध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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