SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ चिंतन की मनोभूमि अत: मेरे दृष्टिकोण से कर्म से पहले, कर्म के प्रति श्रद्धा जगनी चाहिए। यदि मैं आपसे पूछू कि—अहिंसा पहले होनी चाहिए या अहिंसा के प्रति श्रद्धा पहले होनी चाहिए ? सत्य पहले हो, या सत्य के प्रति श्रद्धा पहले हो? तो आप क्या उत्तर देंगे ? बात अचकजाने की नहीं है, और हमारे लिए तो बिल्कुल नहीं, चूँकि यहाँ तो पहला पाठ श्रद्धा का ही पढ़ाया जाता है। स्पष्ट है कि अहिंसा तभी अहिंसा है, जब उसमें श्रद्धा है; सत्य तभी सत्य है, जब उसमें श्रद्धा है। यदि श्रद्धा नहीं है, तो अहिंसा, हिंसा हो जाती है, किन्तु यह बिल्कुल स्पष्ट है कि यदि अहिंसा में श्रद्धा और निष्ठा नहीं है, तो वह अहिंसा एक पॉलिसी या कूटनीति हो सकती है, पर जीवन का सिद्धान्त और आदर्श कभी नहीं बन सकती। श्रद्धा के बिना अहिंसा और सत्य की साधना कदापि नहीं हो सकती। गाँधीजी कष्ट एवं संकट के झंझावातों में, जेल के सींकचों में भी आनन्द अनुभव करते थे, मुस्कराते रहते थे। वह आनन्द उन्हें कहाँ से प्राप्त होता था ? बाहर से या भीतर से ? भीतर से जो आनन्द का अमृत सरोवर था, वह श्रद्धा ही थी। अहिंसा और सत्य की श्रद्धा थी, इसलिए वे संकट में भी अपनी साधना से आनन्द प्राप्त करते रहते थे। इसलिए मैंने आप से कहा— श्रद्धा हमारे जीवन में रस का स्रोत है, आनन्द का उत्स है। मित्र और भगवान् एक श्रद्धा है : आप जीवन में किसी को मित्र बनाते हैं, और फिर उस मैत्री का आनन्द प्राप्त करते हैं। मित्र बनाने का अर्थ क्या है ? आप मित्र कहे जाने वाले व्यक्ति में अपना विश्वास स्थिर करते हैं, उसके भीतर श्रद्धा का रस डालते हैं और फिर उसका विश्वास एवं श्रद्धा का आनन्द उठाते हैं, प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। पति-पत्नी क्या हैं ? केवल दैहिक सम्बन्ध ही पति-पत्नी नहीं है। पति-पत्नी एक भाव है, एक विश्वास है, एक श्रद्धा है। पहले एक-दूसरे में अपना विश्वास स्थापित किया जाता है, श्रद्धा का रस एक-दूसरे के हृदय में डाला जाता है और फिर उससे आनन्द एवं उल्लास प्राप्त किया जाता है। गुरु-शिष्य और भक्त-भगवान् के सम्बन्ध में भी और कुछ नहीं, केवल एक भाव है। श्रद्धा है, तो गुरु है; भाव है,तो भगवान हैं, 'भावे हि विद्यते: भाव में ही भगवान् है। यदि भाव नहीं है, तो भगवान् कहीं नहीं है। ईश्वर के लिए, ब्रह्मा के लिए जब जिज्ञासा उठी कि वह क्या है ? तो उत्तर मिला "रसो वै सः रस ह्येवायं लब्ध्वाऽनन्दी भवतिः"१ वह ईश्वर रसरूप है। तभी तो मनुष्य जहाँ कहीं भी रस पाता है, तो उसमें निमग्न हो जाता है। आनन्दस्वरूप बन जाता है। १. तैत्तिरीय उपनिषद्, २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy