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________________ मन : एक सम्यक् विश्लेषण १५ है। उनके सम्बन्ध में कहा जाता है कि वे विवाह से पूर्व ही वेदान्तदर्शन के शांकर भाष्य पर टीका लिख रहे थे। विवाह हो गया, फिर भी वे अपने लेखन में ही डूबे रहे। रात दिन उसी धुन में लगे रहे, संध्या होते ही पत्नी आती, दीपक जला जाती, और वे अपने लिखने में लगे रहते। एक बार तेल समाप्त होने पर दीपक बुझ गया, अंधेरा हो गया तो लेखनी रुकी। पत्नी आई और तेल डालकर दीपक फिर से जलाया। तब वाचस्पति ने आँखें उठाकर उस दीपक के प्रकाश में पत्नी की ओर देखा। देखने में पाया कि पत्नी का यौवन ढल चुका था, काले केश सफेद होने जा रहे थे। वाचस्पति मिश्र सहसा बोल उठे-"अरे ! यह क्या ? मुझे तो ध्यान ही नहीं रहा कि मेरा विवाह हो गया है ,और तुम तो बुढ़ी भी हो गईं।" सोचिए, यह कैसी बात है ? आप कहते हैं, काम में मन नहीं लगता और, एक यह वाचस्पति मिश्र थे कि यौवन बीत गया, पर उन्हें पता भी नहीं रहा कि विवाह किया भी है या नहीं? यह बात और कुछ नहीं, कर्म में आनन्द की बात है! रस की बात है ! अपने कर्म में उसे इतना आनन्द आया कि वह तल्लीन हो गया। मन में रस जगा कि वह कर्म के साथ एकाकार हो गया। फिर न कोई विकल्प ! न कोई चंचलता और न किसी तरह की थकावट ! इंग्लैण्ड के एक डॉक्टर के सम्बन्ध में भी कहा जाता है कि वह जनहित के लिए जीवनभर किसी महत्त्वपूर्ण शोध में लगा रहा। बुढ़ापे में किसी एक मित्र ने उससे पूछा-आपकी सन्तान कितनी हैं ? डॉक्टर ने बड़ी संजीदगी से कहा-मित्र ! तुमने भी क्या खूब याद दिलाई ! मुझे तो कभी शादी करने की याद ही नहीं आई ! ये बातें मजाक नहीं है, जीवन के मूलभूत सत्य हैं। जिन्हें अपने काम में आनन्द आ जाता है, उन्हें चाहे जितना भी काम हो, थकावट महसूस नहीं होती। समय बीतता जाता है, पर उन्हें पता नहीं चलता। जीवन में कभी विक्षिप्तता का अनुभव नहीं करते, उनका मन विकल्पों से परेशान होकर कभी करवटें नहीं बदलता। आपको मालूम होना चाहिए कि मन में विकल्प, थकावट, बैचेनी,ऊब तभी आती है, जब कर्म में रस नहीं आता। इन विकल्पों को भगाने के लिए, और कोई साधना नहीं है, सिवाय इसके कि मन को कर्म के रस में डुबो दिया जाए। रस का स्त्रोत श्रद्धा : हमारे यहाँ रत्नत्रय की चर्चा आती है। दर्शन, ज्ञान और चारित्र ! दर्शन सबसे पहला रत्न है, वह साधना की मुख्य आधारभूमि है। दर्शन का अर्थ है--श्रद्धा ! निष्ठा ! श्रद्धा मन को रस देती है, कर्म में आनन्द जगाती है। आप कुछ भी कर रहे हैं, यदि उस कर्म में आपकी श्रद्धा है, तो उसमें आपको अवश्य रस मिलेगा, अवश्य आनन्द आएगा। कर्म करते हुए आपका मन मुरझाया हुआ नहीं रहेगा, प्रफुल्लित हो उठेगा; चूँकि श्रद्धा रस का स्रोत है, आनन्द का उत्स है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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