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________________ ३७ शास्त्रकारों ने कहा है कि अस्तेय व्रत "चित्तमन्तमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहु । दंत - सोहणमेत्तं पि उग्गहंसि अजाइया ॥ " सजीव वस्तु हो या निर्जीव, कम हो या ज्यादा, पर मालिक की आज्ञा के बिना कोई भी वस्तु नहीं लेनी चाहिए। दाँत कुरेदने का तिनका भी बिना आज्ञा के नहीं लिया जा सकता है। जब अस्तेय व्रत पर सम्यक् रूप से विचार करेंगे, तो यह प्रतीत होगा कि इस व्रत का पालक ही अहिंसा और सत्य व्रत का पालक बन सकता है ! ---- अपनी वस्तु को छोड़कर दूसरे की किसी भी वस्तु को हाथ लगाना चोरी है । दूसरे की वस्तु को बिना उसकी अनुमति के अपने उपयोग में लाना अदत्तादान है। इस अदत्तादान का त्याग ही अस्तेय व्रत है । इसीलिए शास्त्रकारों ने कहा है कि मार्ग में पड़ी हुई दूसरे की वस्तु को अपनी समझना भी चोरी है। मन, वचन और काय से ऐसी चोरी को न स्वयं करना और न दूसरों से कराना, यही इस व्रत का आशय है। किसी भी वस्तु को बिना आज्ञा लेने का नियम इस व्रत में बताया गया है । जिस वस्तु की हमको आवश्यकता न हो, वह वस्तु दूसरों के पास से लेना भी चोरी है । फिर भले ही वह वस्तु दूसरों की आज्ञा से ही क्यों न ली गई हो, पर बिना जरूरत के वस्तु लेना चोरी ही है। अमुक फल खाने की मनुष्य को आवश्यकता नहीं होती है, फिर भी यदि वह उन्हें खाने लग जाए तो वह भी चोरी ही है। मनुष्य अपना स्वभाव समझता नहीं है, इसी से उससे ऐसी चोरी हो जाती है । इस व्रत के आराधक को इस प्रकार अचौर्य का व्यापक अर्थ घटाना चहिए। जैसे-जैसे वह इस व्रत का विशाल रूप में पालन करता जाएगा वैसे-वैसे इस व्रत की महत्ता और उसका रहस्य भी समझता जाएगा। Jain Education International ぶ अस्तेय का इससे भी गहरा अर्थ यह है कि पेट भरने और शरीर ढँकने के लिए जरूरत से अधिक संग्रह करना भी चोरी ही है । एक मनुष्य आवश्यकता से अधिक खने लग जाय, तो यह स्वाभाविक ही है कि दूसरों को आवश्यकता पूर्ति के लिए भी नहीं मिल सके। दो जोड़ी कपड़ों के बजाय यदि कोई मनुष्य बीस जोड़ी कपड़े रखे, तो इससे उसे दूसरे पाँच-सात आदमियों को वस्त्रहीन करना पड़ता है अतः किसी भी वस्तु का अधिक संग्रह करना चोरी है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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