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३४२ चिंतन की मनोभूमि
इसके विपरीत, जब मनुष्य स्वतः समुद्भूत उल्लास के भाव से अपने कर्त्तव्य और दायित्व को नहीं निभाता, तो चारों ओर से उसे दबाया और कुचला जाता है। इस प्रकार एक तरह की गंदगी और बदबू फैलती है। आज दुर्भाग्य से समाज और देश में सर्वत्र गन्दगी और बदबू ही नजर आ रही है और इसीलिए वह जीवन अत्यन्त पामर बना रहता है ।
सत्य की अंतर में अनुभूति ही सच्ची अनुभूति :
भारतीय दर्शन, जीवन के लिए एक महत्त्वपूर्ण सन्देश लेकर आया है कि तू अन्दर से क्या है ? तुझे अन्तरतम में विराजमान महाप्रभु के प्रति सच्चा होना चाहिए। वहाँ सच्चा है, तो संसार के प्रति भी सच्चा है और वहाँ सच्चा नहीं, तो संसार के प्रति भी सच्चा नहीं है । अन्त:प्रेरणा और स्फूर्ति से, बिना दबाव के भय से जब अपना कर्त्तव्य निभाया जाएगा, तो जीवन एकरूप होकर कल्याणमय बन जाएगा।
• दूसरी बात है - मनुष्य के हृदय में दया और करुणा की लहर पैदा होना । हमारे भीतर, हृदय के रूप में, माँस का एक टुकड़ा । निस्सन्देह, वह माँस का टुकड़ा ही है और माँस के पिण्ड के रूप में ही हरकत कर रहा है। हमें जिन्दा रखने के लिए श्वास छोड़ रहा है और ले रहा है। पर उस हृदय का मूल्य अपने-आप में कुछ नहीं है। उसमें अगर महान् करुणा की लहर पैदा नहीं होती, तो उस माँस के टुकड़े की कोई कीमत नहीं है ।
जब हमारे जीवन में समग्र विश्व के प्रति दया और करुणा का भाव जाग्रत होगा, तभी प्रकृति- भद्रता उत्पन्न हो सकेगी। तभी हमारा जीवन भगवत्स्वरूप हो सकेगा ।
सत्य का विराट् रूप :
इस प्रकार सारे समाज के प्रति कर्त्तव्य की बुद्धि उत्पन्न हो जाना, विश्वचेतना का विकास हो जाना है और उसी को जैन-धर्म ने भागवत रूप दिया है। यही मानवधर्म है ।
तो धर्म का मूल इन्सानियत है, मानवता है और मानव की मानवता ज्यों-ज्यों विराट् रूप ग्रहण करती जाती है, त्यों-त्यों उसका धर्म भी विराट् बनता चला जाता है। इस विराटता में जैन, वैदिक, बौद्ध, मुस्लिम, सिख और ईसाई आदि का कोई भेद नहीं रहता, सब एकाकार हो जाते हैं। यही सत्य का स्वरूप है, प्राण है और इस विराट् चेतना में ही सत्य की उपलब्धि होती है ।
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