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________________ सत्य का विराट रूप ३४१ प्रत्येक मनुष्य को अपना कर्तव्य, कर्त्तव्यभाव से, स्वतः ही पूर्ण करना चाहिए। किसी की आँखें हमारी ओर घूर रही हैं या नहीं, यह देखने की उसे आवश्यकता ही क्या है ? भगवान् महावीर का पवित्र सन्देश है कि मनुष्य अपने-आप में सरल बन जाए और द्वैत-बुद्धि मन, वचन, काया की वक्रता नहीं रखे। हर प्रसंग पर दूसरों की आँखों से अपने कर्तव्य को नापने की कोशिश न करे। जो इस ढंग से काम नहीं कर रहा है और केवल भय से प्रेरित होकर हाथ-पाँव हिला रहा है, वह आतंक में काम कर रहा है ऐसे काम करने वाले के कार्य में सुन्दरता नहीं पैदा हो सकती, महत्त्वपूर्ण प्रेरणा नहीं जाग सकती। ऋग्वेद में कहा गया है “यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्।" सारा भूमण्डल तेरा देश है और सारा देश एक घोंसला है तथा हम सब उसमें पक्षी के रूप में बैठे हैं। फिर कौन भूमि है कि जहाँ हम न जाएँ ? समस्त भूमण्डल मनुष्य का वतन है और वह जहाँ कहीं भी जाए या रहे, एकरूप होकर रहे। उसके लिए कोई पराया न हो। जो इस प्रकार की भावना को अपने जीवन में स्थान देगा, वह अपने जीवन-पुष्प को सौरभमय बनाएगा। गुलाब का फूल टहनी पर है, तब भी महकता है और टूटकर अन्यत्र जाएगा, तब भी महकता रहेगा। महक ही उसका जीवन है, उसका प्राण है। सहज-भाव से अपने कर्त्तव्य को निभाने वाला मनुष्य सिर्फ अपने-आपको देखता है। उसकी दृष्टि दूसरों की ओर नहीं जाती। कौन व्यक्ति मेरे सामने है अथवा किस समाज के भीतर मैं हूँ, यह देखकर वह काम नहीं करता। सूने पहाड़ में जब वनगुलाब खिलता है, महकता है, तो क्या उसके विकास को देखने वाला और महक को सूंघने वाला आस-पास में कोई होता है ? परन्तु गुलाब को इसकी कोई परवाह नहीं कि कोई उसे दाद देने वाला है या नहीं, भ्रमर है या नहीं। गुलाब जब विकास की चरम सीमा पर पहुँचता है, तो आपने-आप खिल उठता है। उससे कोई पूछेतुम्हारी उपयोग करने वाला यहाँ कोई नहीं है, फिर तुम क्यों वृथा खिल रहे हो ? क्यों अपनी महक लुटा रहे हो ? गुलाब जवाब देगा कोई है या नहीं, इसकी मुझको चिन्ता नहीं। मेरे भीतर उल्लास आ गया है, विकास आ गया है और मैंने महकना शुरू कर दिया है। यह मेरे बस की बात नहीं है। इसके बिना मेरे जीवन की और कोई गति ही नहीं है। यही तो मेरा जीवन है। बस, यही भाव मनुष्य में जाग्रत होना चाहिए। वह सहजभाव से अपना कर्तव्य पूरा करे और इसी में अपने जीवन की सार्थकता-समझे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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