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________________ ३४४ चिंतन की मनोभूमि जो वस्तु जिस उपयोग के लिए मिली है, उसका वैसा उपयोग नहीं करना भी चोरी है। शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि, शक्ति आदि की प्राप्ति आराधना के लिए हुई है, उनका उपयोग आत्माराधना में न कर भोगोपभोग में करना भी सूक्ष्म दृष्टि से चोरी ही है। शारीरादि का उपयोग परमार्थ के लिए न करते हुए, स्वार्थ के लिए करना भी एक तरह की चोरी ही है। उपनिषद् में अश्वपति राजा अपने राज्य की महत्ता बताते हुए एक वाक्य में कहता है कि 'न मे स्तेनो जनपदे नकदर्यः' चोर और कुपण को वह एक ही श्रेणी में बैठाता है। गहरा विचार करेंगे, तो प्रतीत होगा कि कृपण ही चोर के जनक होते हैं। अत: समाज में अस्तेय व्रत की प्रतिष्ठा कायम करने के लिए कृपणों को अपनी कृपणता त्याग देनी चाहिए और बदले में उदारता प्रकट करनी चाहिए। ___चोरी के प्रमुख चार प्रकार होते हैं. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। द्रव्य से चोरी करना यानि वस्तओं की चोरी। सजीव और निर्जीव इन दोनों प्रकार की चोरी द्रव्य चोरी कही जाती है। किसी के पशु चुरा लेना या किसी की स्त्री का अपहरण कर लेना. किसी का बालक चरा लेना या किसी के फल-फल तोडना यह सजीव चोरी कही जाती है। सोना-चाँदी, हीरा, माणिक, मोती आदि की चोरी निर्जीव चोरी है। कर या महसूल की चोरी का भी निर्जीव चोरी में समावेश होता है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, मार्ग में पड़ी हुई ऐसी कोई निर्जीव वस्तु, जिसका कोई मालिक न हो, ले लेना भी चोरी है। किसी के घर या खेत पर अनुचित रीति से अपना कब्जा जमा लेना क्षेत्र की चोरी कही जाती है। वेतन, किराया, ब्याज आदि देने-लेने के समय की न्यूनाधिकता बताना काल की चोरी है। किसी कवि, लेखक या वक्ता के भावों को लेकर अपने नाम से लिखना भाव की चोरी है। एक लेखक ने लिखा है कि 'He, who purposely cheats his friend, would cheat his God' अर्थात् जो व्यक्ति अपने मित्र को ठगता है, वह एक दिन ईश्वर को भी ठगेगा। दूसरे एक लेखक ने लिखा है कि-'Dishonesty is a forsaking of permanent for temporary advantages' अर्थात् अप्रामाणिकता बताना या चोरी करना, यह क्षणिक लाभ के लिए शाश्वत श्रेय को गुम कर देने जैसा है। अपने हक के अतिरिक्त की वस्तु चाहे जिस किसी प्रकार से ले लेना चोरी है। कोई सरकारी नौकर किसी का काम करके उसके बदले में रिश्वत या ईनाम ले, तो यह भी चोरी है। अपने असाध्य रोग की खबर होने पर भी बीमा कराना यह भी एक तरह की चोरी ही है। आये दिनों समाज में चोरियां बढ़ती जा रही हैं। पाप चोरी करने वाले को तो लगता ही है, परन्तु परोक्ष रूप में वे मनुष्य भी इस पाप के कम भागीदार नहीं बनते, जो समाज की परिस्थिति की तरफ ध्यान नहीं देते। आज एक तरफ कारखाने माल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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