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|३३६ चिंतन की मनोभूमि कर लो। गलती को गलती के रूप में स्वीकार कर लो—यह सत्य की दृष्टि है, सम्यग्दृष्टि की भूमिका है। सत्य की भूमिका :
छठे गुणस्थान में सत्य महाव्रत होता है, किन्तु वहाँ पर भी गलतियाँ और भूलें हो जाती हैं। पर गलती या भूल हो जाना एक बात है. और उसके लिए आग्रह होना दूसरी बात। सम्यग्दृष्टि भूल करता हुआ भी उसके लिए आग्रहशील नहीं होता, उसका आग्रह तो सत्य के लिए ही होता है। वह असत्य को असत्य जानकर कदापि आग्रहशील न होगा। जब उसे सत्य का पता लगेगा, वह स्पष्ट शब्दों में अपनी प्रतिष्ठा को जोखिम में डालकर भी यही कहेगा_"पहले मैंने ऐसा कहा था, इस बात का समर्थन किया था और अब यह सत्य बात सामने आ गई है, तो इसे कैसे अस्वीकार करूँ? इस प्रकार वह उसी क्षण सत्य को स्वीकार करने के लिए उद्यत हो जाएगा। इसका अभिप्राय यह है कि जहाँ सत्य की दृष्टि है, वहाँ सत्य है और जहाँ असत्य की दृष्टि है, वहाँ सत्य नहीं है। .
जीवन के मार्ग में कहीं सत्य का और कहीं असत्य का ढेर नहीं लगा होता कि उसे बटोर कर ले आया जाए। सत्य और असत्य तो मनुष्य की अपनी दृष्टि में रहा करता है। इसी बात को भगवान् महावीर ने भी नन्दी-सूत्र में कहा है--
"एआणि मिच्छादिट्ठिस्स मिच्छत्तपरिग्गहियाई मिच्छासुयं,
एआणि चेव सम्मदिट्ठिस्स सम्मत्तपरिग्गहियाई सम्मसुयं।"
कौन शास्त्र सच्चा है और कौन झूठा है, जब इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर विचार किया गया, तो एक बहुत बड़ा निरूपण हमारे सामने आया। इस सम्बन्ध में बड़ी गम्भीरता के साथ विचार किया गया है।
हम बोलचाल की भाषा में जिसे सत्य कहते हैं, सिद्धान्त की भाषा में वह कभी असत्य भी हो जाता है, और कभी-कभी बोलचाल का असत्य भी सत्य बन जाता है। अतएव सत्य और असत्य की दृष्टि ही प्रधान वस्तु है। जिसे सत्य की दृष्टि प्राप्त है, वह वास्तव में सत्य का आराधक है। सत्य की दृष्टि कहो या मन का सत्य कहो, एक ही बात है। इस मन के सत्य के अभाव में वाणी का सत्य मूल्यहीन ही नहीं, वरन् कभी-कभी धूर्तता का चिह्न भी बन जाता है। अतएव जिसे सत्य भगवान् की आराधना करनी है, उसे अपने मन को सत्यमय बनाना होगा, सत्य के पीछे विवेक को जाग्रत करना होगा।
___ आज तक जो भी धर्म आए हैं और जिन्होंने मनुष्य को प्रेरणाएं दी हैं, यह न समझिए कि उन्होंने जीवन में बाहर से कोई प्रेरणाएँ डाली हैं। यह एक दार्शनिक
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