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________________ सत्य का विराट रूप | ३३५/ सत्य का आचरण : जब तक मनुष्य के मन में उदारता बनी रहती है, उसे लोभ नहीं घेरता है। उत्पन्न होते हुए लोभ से वह टकराता रहता है, संघर्ष करता है और उस जहर को अन्दर नहीं आने देता है। जब तक वह मनुष्य बना रहता है और उदारता की पूजा करता है, तभी तक उसकी उदारता सत्य है और क्षमा भी सत्य है। क्षमा करना भी सत्य का आचरण करना है। किसी में निरभिमानता है और सेवा की भावना है, अर्थात् वह जनता के सामने नम्र सेवक के रूप में पहुँचता है, तो उसकी नम्रता भी सत्य है। जो संसार की सेवा के लिए नम्र बन कर चल रहा है, वह सत्य का ही आचरण कर रहा है। इसी प्रकार जो सरलता के मार्ग की ओर जिन्दगी ले जाता है, जिसका जीवन खुला हुआ है, स्पष्ट है-चाहे कोई भी देख ले, दिन में या रात में परख ले; चाहे एकान्त में परखे, चाहे हजार आदमियों में परखे, उसकी जिन्दगी वह जिन्दगी है कि अकेले में रह रहा है, तो भी वही काम कर रहा है और हजारों के बीच में रह रहा है, तो भी वही काम रहा है। भगवान् महावीर ने कहा है-"तू अकेला है और तुझे कोई देखने वाला नहीं है, पहचानने वाला नहीं है, तुझे गिनने के लिए कोई ऊँगली उठाने वाला नहीं है, तो तू क्यों सोचता है कि ऐसा या वैसा क्यों न कर लूँ, यहाँ कौन देखने बैठा है? अरे, सत्य तेरे आचरण के लिए है, यह तेरी बीमारी को दूर करने के लिए है। इसलिए तू अकेला बैठा है, तो भी उस सत्य की पूजा कर और हजारों की सभा में बैठा है, तो भी उसी सत्य का अनुसरण कर। यदि लाखों और करोड़ों की संख्या में जनता बैठी है, तो उसे देखकर तुझे अपनी राह नहीं बदलनी है। यह क्या कि जनता की आँखें तुझे घूरने लगें, तो तू राह बदल दे ? सत्य का मार्ग बदल दे? नहीं, तुझे सत्य की ही ओर चलना है और प्रत्येक परिस्थिति में सत्य को ही तेरा उपास्य होना है।"१ सर्वज्ञता : सत्य की चरमपरिणति : . जब मनुष्य सर्वज्ञता की भूमिका पर पहुँचता है, तभी उसका ज्ञान पूर्ण होता है, तभी उसे उज्ज्वलतम प्रकाश मिलता है, तभी उसे परिपूर्ण वास्तविक सत्य का पता लगता है। किन्तु उससे नीचे की जो भूमिकाएँ हैं, वहाँ क्या है ? जहाँ तक विचार सत्य को आज्ञा देते हैं मनुष्य सोचता है और आचरण करता है। फिर भी सम्भव है कि सोचते-सोचते और आचरण करते-करते ऐसी धारणाएँ बन जाएँ, जो सत्य से विपरीत हों। किन्तु जब कभी सत्य का पता चल जाए और भूल मालूम होने लगे, यह समझ आ जाए कि यह गलत बात है, तो उसे एक क्षण भी मत रखो, तुरन्त सत्य को ग्रहण १. "दिआ वा, राओवा, परिसागओवा, सुत्ते वा, जागरमाणे वा।" -दशवैकालिक, ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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