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- सत्य का विराट रूप ३३३ करके भी संसार से मुस्कराते हुए विदा हो लेते हैं। यह प्रेरणा और यह प्रकाश सत्य और धर्म के सिवाय और कोई देने वाला नहीं है। सत्य जीवन की समाप्ति के पश्चात् भी प्रेरणा प्रदान करता है। हमारे आचार्यों ने कहा है
"सत्येन धार्यते पृथ्वी, सत्येन तपते रविः।
सत्येन वाति वायुश्च, सर्व सत्ये प्रतिष्ठितम्॥" कहने को तो लोग कुछ भी कह देते हैं। कोई कहते हैं कि जगत् साँप के फन पर टिका है, और किसी की राय में बैल के सींग पर, किन्तु यह सब कल्पनाएँ हैं। इनमें कोई तथ्य नहीं है। तथ्य तो यह है कि इतना विराट् संसार पृथ्वी पर टिका हुआ है। पृथ्वी का अपने-आप में यह विधान और नियम है कि जब तक वह सत्य पर टिकी हुई है, तब तक सारा संसार उस पर खड़ा हुआ है।
सूर्य समय पर ही उदित और अस्त होता है और संसार की यह अनोखी घड़ी निरन्तर चलती रहती है। इसकी चाल में जरा भी गड़बड़ हो जाए, तो संसार की सारी व्यवस्थाएँ ही बिगड़ जाएँ। किन्तु प्रकृति का यह सत्य नियम है कि सूर्य का उदय और अस्त ठीक समय पर ही होता है।
इसी प्रकार यह वायु भी केवल सत्य के बल पर ही चल रही है। जीवन की जितनी भी साधनाएँ हैं, वे चाहे प्रकृति की हों या चैतन्य की हों, सब की सब अपने आप में सत्य पर प्रतिष्ठित हैं। इस प्रकार क्या जड़ प्रकृति और क्या चेतन, सभी सत्य पर प्रतिष्ठित हैं। चेतन जब तक अपनी चैतन्य शक्ति की सीमा में चल रहा है तब तक कोई गड़बड़ नहीं होने पाती और, जड़-प्रकृति भी जब तक अपनी सत्य की धुरी पर चल रही है, सब कुछ व्यवस्थित चलता है। जब प्रकृति में तनिक-सा भी व्यतिक्रम होता है, तो भीषण संहार हो जाता है। एक छोटा-सा भूकम्प ही प्रलय की कल्पना को प्रत्यक्ष बना देता है। अतः यह कथन सत्य है कि संसार-भर के नियम और विधान सब सत्य पर ही प्रतिष्ठित हैं।
सत्य का आध्यात्मिक विश्लेषण भगवान महावीर के दर्शन में, सबसे बड़ी क्रांति, सत्य के विषय में, यह रही है कि वे वाणी के सत्य को तो महत्त्व देते ही हैं, किन्तु उससे भी अधिक महत्त्व मन के सत्य को, विचार या मनन करने के सत्य को देते हैं। जब तक मन में सत्य नहीं आता, मन में पवित्र विचार और संकल्प जाग्रत नहीं होते और मन सत्य के प्रति आग्रहशील नहीं बनता; बल्कि मन में झूठ, कपट और छल भरा होता है, तब तक वाणी का सत्य, सत्य नहीं माना जा सकता। सत्य की पहली कड़ी मानसिक पावनता है और दूसरी कड़ी वचन की पवित्रता है।
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