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३३० चिंतन की मनोभूमि आवश्यकता नहीं रह जाती, तुझे अवश्य ही भगवान् के दर्शन हो जाएंगे। संत कबीर ने कितना सही कथन किया है
"मन मथुरा, तन द्वारिका, काया काशी जान।
दस द्वारे का देहरा, तामें पीव पिछान॥" ___यदि तूने अपने-आपको राक्षस बनाए रखा, हैवान बनाए रखा और फिर ईश्वर की तलाश करने को चला, तो तुझे कुछ भी नहीं मिलना है।
संसार बाहर के देवी-देवताओं की उपासना के मार्ग पर चला जा रहा है। उसके सामने भगवान महावीर की साधना किस रूप में आई? यदि हम जैनधर्म के साहित्य का भली-भाँति चिन्तन करेंगे, तो मालूम होगा कि जैनधर्म देवी-देवताओं की
ओर जाने के लिए है, या देवताओं को अपनी ओर लाने के लिए है? वह देवताओं को साधक के चरणों में झुकाने के लिए चला है, साधक को देवताओं के चरणों मे झुकाने के लिए नहीं चला है। सम्य श्रुति के रूप में प्रवाहित हुई भगवान् महावीर की वाणी दशवैकालिक सूत्र के प्रारम्भ में ही बतलाती है—"धर्म अहिंसा है। धर्म संयम है। धर्म तप और त्याग है। यह महामंगलमय धर्म है। जिसके जीवन में इस धर्म की रोशनी पहुँच चुकी है, देवता भी उसके चरणों में नमस्कार करते हैं।"१ सत्य का बल :
इसका अभिप्राय यह हुआ कि जैनधर्म ने एक बहुत बड़ी बात संसार के सामने रखी है। तुम्हारे पास जो जन-शक्ति है, धन-शक्ति है, समय है और जो भी चन्द साधन-सामग्रियाँ तुम्हें मिली हुई हैं, उन्हें अगर तुम देवताओं के चरणों में अर्पित करने चले हो, तो उन्हें निर्माल्य बना रहे हो। लाखों और करोड़ों रुपये देवीदेवताओं को भेंट करते हो, तो भी जीवन के लिए उनका कोई उपयोग नहीं हो रहा है। अतएव यदि सचमुच ही तुम्हें ईश्वर की उपासना करनी है, तो तुम्हारे आस-पास की जनता ही ईश्वर के रूप में है। छोटे-छोटे दुधमुंहे बच्चे, असहाय स्त्रियाँ और दूसरे जो दीन और दुःखी प्राणी हैं, वे सब नारायण के स्वरूप हैं, उनकी सेवा और सहायता, ईश्वर की ही आराधना है।
___अत: जहाँ जरूरत है, वहाँ इस धन को अर्पण करते चलो। इस रूप में अर्पण करने से तुम्हारे अन्दर में सोया हुआ देवता जाग उठेगा और वह बन्धनों को तोड़ देगा। कोई दूसरा बाहरी देवता तुम्हारे क्रोध, मान, माया, लोभ और वासनाओं के बन्धनों को नहीं तोड़ सकता। वस्तुतः अन्तरंग के बन्धनों को तोड़ने की शक्ति अन्तरंग आत्मा में ही है।
१. "धम्मो मंगलमुक्किळं, अहिंसा संजमो तवो।
देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो॥"
-दशवकालिक १४१
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