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________________ अहिंसाः विश्वशान्ति की आधारभूमि ३२३/ भले आदमी। यदि तू दूसरे को सताता है, तो वह दूसरे को नहीं, अपने को ही सताता है। इस सम्बन्ध में आचारांग सूत्र में आज भी उनका एक प्रवचन उपलब्ध है.. "जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे त परिताप देना चाहता है, वह तू ही है।" यह भगवान् महावीर की अद्वैत दृष्टि है, जो अहिंसा का मूलाधार है। जब तक किसी के प्रति पराएपन का भाव रहता है, तब तक मनुष्य परपीड़न से अपने को मुक्त नहीं कर सकता। सर्वत्र 'स्व' की अभेद दृष्टि ही मानव को अन्याय से अत्याचार से बचा सकती है। उक्त अभेद एवं अद्वैत दृष्टि के आधार पर ही भगवान् महावीर ने परस्पर के आघात-प्रत्याघातों से त्रस्त मानव जाति को अहिंसा के स्वर में शान्ति और सुख का सन्देश दिया था कि "किसी भी प्राणी को ... किसी भी सत्व को न मारना चाहिए, न उस पर अनुचित शासन करना चाहिए, न उसको एक दास (गुलाम) की तरह पराधीन बनाना चाहिए-उसको स्वतन्त्रता से वंचित नहीं करना चाहिए। न उसे परिताप देना चाहिए और न उसके प्रति किसी प्रकार का उपद्रव ही करना चाहिए।" यह अहिंसा का वह महान् उद्घोष है, जो हृदय और शरीर के बीच, बाह्य प्रवृत्तिचक्र ओर अन्तरात्मा के बीच, स्वयं और आस-पास के साथियों के बीच एक सद्भावनापूर्ण व्यावहारिक सामंजस्य पैदा कर सकता है। मानव-मानव के बीच बन्धुता की मधुर रसधारा बहा सकता है। मानव ही क्यों अहिंसा के विकास पथ पर निरन्तर प्रगति करते-करते एक दिन अखिल प्राणि जगत् के साथ तादात्म्य स्थापित कर सकता है। अहिंसा क्या है ? समय चैतन्य के साथ बिना किसी भेदभाव के तादात्म्य स्थापित करना ही तो अहिंसा है। अहिंसा में तुच्छ-से तुच्छ जीव के लिए भी बन्धुत्व का स्थान है। महावीर ने कहा था—जो जीव व्यक्ति सर्वात्मभूत है, सब प्राणियों को अपने हृदय में बसाकर विश्वात्मा बन गया है, उसे विश्व का कोई भी पाप कभी स्पर्श नहीं कर सकता। दशवैकालिक सूत्र में आज भी यह अमर वाणी सुरक्षित है—'सव्वभूयप्पभूयस्स ........ पावकम्मं न बंधई।' दंड और अहिंसा : अहिंसा के उपर्युक्त संदर्भ में एक जटिल प्रश्न उपस्थित होता है—'दण्ड' का। एक व्यक्ति अपराधी है, समाज की नीतिमूलक वैधानिक स्थापनाओं को तोड़ता और उच्छृङ्खल भाव से अपने अनैतिक स्वार्थ की पूर्ति करता है। प्रश्न है-उसे दण्ड दिया जाए या नहीं ? यदि दण्ड दिया जाता है, तो यह परिताप है, परिताड़न है, अत: हिंसा है और यदि दण्ड नहीं दिया जाता है, तो समाज में अन्याय-अत्याचार का. प्रसार होता है। अहिंसा दर्शन इस सम्बन्ध में क्या कहता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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