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३२२ चिंतन की मनोभूमि
मानवचेतना की ही एक मानव प्रक्रिया है, और यह अहिंसा है। अहिंसा भगवती के अनन्त रूपों में से यह भी एक रूप है। इस रूप को अहिंसा के मंगल- क्षेत्र से बाहर धकेल कर मानव मानवता के पथ पर एक चरण भी ठीक तरह नहीं रख सकता । अहिंसा की प्रक्रिया :
अहिंसा मानवजाति को हिंसा से मुक्त करती है । वैर, वैमनस्य-द्वेष, कलह, घृणा, ईर्ष्या- डाह, दु:संकल्प, दुर्वचन, क्रोध, अभिमान, दम्भ, लोभ-लालच, शोषण, दमन आदि जितनी भी व्यक्ति और समाज की ध्वंस मूलक विकृतियाँ हैं, सब हिंसा के ही रूप हैं। मानव मन हिंसा के उक्त विविध प्रहारों से निरन्तर घायल होता आ रहा है। मानव उक्त प्रहारों के प्रतिकार के लिए भी कम प्रयत्नशील नहीं रहा है। परन्तु वह प्रतिकार इस लोकोक्ति को ही चरितार्थ करने में लगा रहा कि 'ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज बढ़ता गया।' बात यह हुई कि मानव ने वैर का प्रतिकार वैर से, दमन का प्रतिकार दमन से करना चाहा, अर्थात् हिंसा का प्रतिकार हिंसा से करना चाहा, और यह प्रतिकार की पद्धति ऐसी ही थी, जैसी कि आग को आग से बुझाना, रक्त से सने वस्त्र को रक्त से धोना । वैर से वैर बढ़ता है, घटता नहीं है। घृणा से घृणा बढ़ती है, घटती नहीं है । यह उक्त प्रतिकार ही था, जिसमें से युद्ध का जन्म हुआ, शूली और फाँसी का आविर्भाव हुआ । लाखों ही नहीं, करोड़ों मनुष्य भयंकर से भयंकर उत्पीड़न के शिकार हुए, निर्दयता के साथ मौत के घाट उतार दिये गए, परन्तु समस्या ज्यों-की-त्यों सामने खड़ी रही। मानव को कोई भी ठीक समाधान नहीं मिला। हिंसा का प्रतिकार हिंसा से नहीं, अहिंसा से होना चाहिए था, घृणा का प्रतिकार घृणा से नहीं, प्रेम से होना चाहिए था। आग का प्रतिकार आग नहीं, जल है। जल ही जलते दावानल को बुझा सकता है। इसीलिए भगवान् महावीर ने; कहा था- ' क्रोध को क्रोध से नहीं, क्षमा से जीतो । अहंकार को अहंकार से नहीं, विनय एवं नम्रता से जीतो । दंभ को दंभ से नहीं, सरलता और निश्छलता से जीतो । लोभ को लोभ से नहीं, सन्तोष से जीतो, उदारता से जीतो । इसी प्रकार भय को अभय से, घृणा को प्रेम से जीतना चाहिए और विजय की यह सात्विक प्रक्रिया ही अहिंसा है। अहिंसा प्रकाश की अन्धकार पर प्रेम की घृणा पर, सद्भाव की वैर पर, अच्छाई की बुराई पर विजय का अमोघ उद्घोष है।
अहिंसा की दृष्टि :
भगवान् महावीर कहते थे-वैर हो, घृणा हो, दमन हो, उत्पीड़न हो— कुछ भी हो, अंतत: सब लौट कर कर्त्ता के ही पास आते हैं। यह मत समझो कि बुराई वहीं रह जाएगी, तुम्हारे पास लौट कर नहीं आएगी। वह आएगी। अवश्य आएगी, कृत कर्म निष्फल नहीं जाता है। कुएँ में की गई ध्वनि प्रतिध्वनि के रूप में वापस लौटती है। और भगवान् महावीर तो यह भी कहते थे कि वह और तू कोई दो नहीं हैं। चैतन्य चैतन्य एक है। जिसे तू पीड़ा देता है, वह और कोई नहीं, तू ही तो है ।
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