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अहिंसा: विश्वशान्ति की आधारभूमि ३२१/ मानव-मन को विश्वास के मंगल सूत्र में जोड़ती है, एक करती है। अहिंसा 'संगच्छध्वम्, संवदध्वम्' की ध्वनि को जन-जन में अनु[जित करती है, जिसका अर्थ है-साथ चलो, साथ बोलो। मानव जाति की एकसूत्रता के लिए यह एक साथ' का मन्त्र सबसे बड़ा मन्त्र है। यह ‘एक साथ' का महामन्त्र मानव जाति को व्यष्टि की क्षद्र भावना से समष्टि की व्यापक भावना की दिशा में अग्रसर करता है। अहिंसा का उपदेश है, संदेश है, आदेश है कि व्यक्तिगत अच्छाई, प्रेम और त्याग से—आपसी सद्भावनापूर्ण पावन परामर्श से, केवल साधारण स्तर की सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं को ही नहीं, जाति, सम्प्रदाय, संस्कृति और राष्ट्रों की विषम से विषम उलझनों को भी सुलझाया जा सकता है। और यह सुलझाव ही भेद में अभेद का, अनेकता में एकता का विधायक है। अहिंसा भावना का विकास :
__मानव अपने विकास के आदिकाल में अकेला था, वैयक्तिक सुख-दुःख की सीमा में घिरा हुआ, एक जंगली जानवर की तरह। उस युग में न कोई पिता था, न कोई माता थी, न पुत्र था, न पुत्री थी, न भाई था और न बहिन थी। पति और पत्नी भी नहीं थे। देह-सम्बन्ध की दृष्टि से ये सब सम्बन्ध थे, फिर भी सामाजिक नहीं थे। इसलिए कि माता-पिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहिन और पति-पत्नी आदि के रूप में तब कोई भी भावनात्मक स्थिति नहीं थी। एकमात्र नर-मादा का सम्बन्ध था, जैसा कि पशुओं में होता है। सुख-दुःख के क्षणों में एक-दूसरे के प्रति लगाव का, सहयोग का जो दायित्व होता है, वह उस युग में नहीं था। इसलिए नहीं था कि जब मानवचेतना ने विराट रूप ग्रहण नहीं किया था। वह एक क्षुद्र वैयक्तिक स्वार्थ की तटबन्दी में अवरुद्ध थी। एक दिन वह भी आया, जब मानव इस क्षुद्र सीमा से बाहर निकला, केवल अपने सम्बन्ध में ही नहीं, अपितु दूसरों के सम्बन्ध में भी उसने कुछ सोचना शुरू किया। उसके अन्तर्मन में सहृदयता, सद्भावना की ज्योति जगी और वह सहयोग के आधार पर परस्पर के दायित्वों को प्रसन्न मन से वहन करने को तैयार हो गया। और जब वह तैयार हो गया, तो परिवार बन गया, परिवार बन गया, तो मातापिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहिन, और पति-पत्नी आदि सभी सम्बन्धों का अविर्भाव हो गया और, जैसे-जैसे मानव मन भावनाशील होकर व्यापक होता गया, वैसे-वैसे पारिवारिक भावना के मूल मानव जाति में गहरे उतरते गए। फिर तो परिवार से समाज और समाज से राष्ट्र आदि के विभिन्न क्षेत्र भी व्यापक एवं विस्तृत होते चले गए। यह सब भावनात्मक विकास की प्रक्रिया, एक प्रकार से, अहिंसा का ही एक सामाजिक रूप है। मानव-हृदय की आन्तरिक संवेदना की व्यापक प्रगति ही तो अहिंसा है। और यह संवेदना की व्यापक प्रगति ही परिवार, समाज और राष्ट्र के उद्भव एवं विकास का मूल है। यह ठीक है कि उक्त विकास-प्रक्रिया में रागात्मक भावना का भी एक बहुत बड़ा अंश है, पर इससे क्या होता है? आखिर तो यह
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