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________________ ३२४ चिंतन की मनोभूमि . अहिंसा दर्शन हृदयपरिवर्तन का दर्शन है। वह मारने का नहीं, सुधारने का दर्शन है। वह संहार का नहीं, उद्धार का एवं निर्माण का दर्शन है। अहिंसा दर्शन ऐसे प्रयत्नों का पक्षधर है, जिनके द्वारा मानव के अन्तर में मनोवैज्ञानिक परिवर्तन किया जा सके, अपराध की भावनाओं को ही मिटाया जा सके क्योंकि अपराध एक मानसिक बीमारी है, जिसका उपचार (इलाज) प्रेम, स्नेह एवं सद्भाव के माध्यम से ही होना चाहिए। महावीर के अहिंसा दर्शन का सन्देश है कि पापी-से-पापी व्यक्ति से भी घृणा न करो। बुरे आदमी और बुराई के बीच अन्तर करना चाहिए। बुराई सदा बुराई है, वह कभी भलाई नहीं हो सकती। परन्तु बुरा आदमी यथाप्रसंग भला हो सकता है। मूल में कोई आत्मा बुरी है ही नहीं। असत्य के बीच में भी सत्य, अन्धकार के बीच में भी प्रकाश छिपा हुआ है। विष भी अपने अन्तर में अमृत को सुरक्षित रखे हुए है। अच्छे-बुरे सब में ईश्वरीय ज्योति जल रही है। अपराधी व्यक्ति में भी वह ज्योति है, किन्तु दबी हुई है। हमारा प्रयत्न ऐसा होना चाहिए कि वह ज्योति बाहर आए, ताकि समाज में से अपराध-मनोवृत्ति का अन्धकार दूर हो। . अपराधी को कारागार की निर्मम यंत्रणाओं से भी नहीं सुधारा जा सकता। अधिकतर ऐसा होता है कि कारागार से अपराधी गलत काम करने की अधिक तीव्र भावना लेकर लौटता है। वह जरूरत से ज्यादा कड़वा हो जाता है, एक प्रकार से समाज का उद्दण्ड, विद्रोही, बेलगाम बागी, फाँसी आदि के रूप में दिया जाने वाला प्राणदण्ड एक कानूनी हत्या ही है, और क्या ? प्राणदण्ड का दण्ड तो सर्वथा अनुपयुक्त दण्ड है। न्यायाधीश भी एक साधारण मानव है। वह कोई सर्वज्ञ नहीं है कि उससे कभी कोई भूल हो ही नहीं सकती। कभी-कभी भ्रान्तिवश निरपराध भी दण्डित हो जाता है। भगवान् महावीर ने अपने एक प्रवचन में नमि राजर्षि के वचन को. प्रमाणित किया है कि कभी-कभी मिथ्या दण्ड भी दे दिया जाता है। मूल अपराधी साफ बच जाता है और बेचारा निरपराध व्यक्ति मारा जाता है'अकारिणोऽत्थं वज्झति, मुच्चई कारगो जणो।' कल्पना कीजिए, इस स्थिति में यदि कभी निरपराध को प्राणदण्ड दे दिया जाए तो क्या होगा ? वह तो दुनिया से चला जाएगा, और उसके पीछे यदि कहीं सही स्थिति प्रमाणित हुई, तो न्याय के नाम पर निरपराध व्यक्ति के खून के धब्बे ही तो शेष रहेंगे? रोगी को रोगमुक्त करने के लिए रोगी को ही नष्ट कर देना, कहाँ का बौद्धिक चमत्कार है ? अहिंसा दर्शन इस प्रकार के दण्ड विधान का विरोधी है। उसका कहना है कि दण्ड देते समय अपराधी के प्रति भी अहिंसा का दृष्टिकोण रहना चाहिए। अपराधी को मानसिक रोगी मानकर उसका मानसिक उपचार होना चाहिए, ताकि समय पर वह एक सभ्य एवं सुसंस्कृत अच्छा नागरिक बन सके। समाज के लिए उपयोगी व्यक्ति हो सके। ध्वंस महान् नहीं है. निर्माण महान है। अपराधियों की पाशविक भावनाओं को बदलने के स्थान पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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