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________________ मन : एक सम्यक् विश्लेषण १३ 'आवुस! मन को सभी जगह से हटाने की आवश्यकता नहीं है, चित्त जहाँजहाँ पापमय होता है, वहाँ-वहाँ से ही उसे हटाकर अपने वश में करना चाहिए। यही दुःख मुक्ति का मार्ग है । ११ – तथागत ने मन का सही समाधान प्रस्तुत किया। घोड़े की लाश पर सवारी : 44 आप कहते हैं, "मन चंचल है। इस चंचलता से बहुत नुकसान होता है, परेशानी होती है । इसलिए मन को मारना चाहिए।" और फिर मारने के लिए नशे किए जाते हैं, मन को मूर्च्छित किया जाता है और उसके साथ कठोर से कठोर संघर्ष किया जाता है । मैं सोचता हूँ, यह कितना गलत चिन्तन है। घोड़ा किसी के पास है, और वह बहुत चंचल है, हवा से बातें करता है। सवार चढ़ा कि बस, लुढ़क गया और लगा घोड़े को कोसने, चाबुक मारने कि बड़ा चंचल है, बदमाश है, तो मतलब यह हुआ कि आपको कंबोजी घोड़ा नहीं चाहिए, प्रजापति का घोड़ा अर्थात् गधा चाहिए, जिसे कितना ही मारो, कितना ही पीटो, किन्तु वह मंद-मंथर घिसटता ही चलता है, गति नहीं पकड़ता । फिर तो आपको तेज घोड़ा नहीं, ठण्डा घोड़ा चाहिए, शीतला का घोड़ा चाहिए। घोड़े का अर्थ ही है चंचल ! ठण्डा घोड़ा तो घोड़ा नहीं, घोड़े की लाश होगी। इसी प्रकार मन को मूर्च्छित करके उस पर सवार होना, मन पर सवार होना नहीं है, बल्कि मन की लाश पर सवार होना है। अभिप्राय यह है कि घोड़े से शिकायत करने वाले को दरअसल अपने आप से शिकायत होनी चाहिए कि उसे घोड़े पर चढ़ना नहीं आया। अभी वह सवार सधा नहीं है, उसे अपने को साधना चाहिए। यात्रा के लिए घोड़ा और सवार दोनों ही सधे होने चाहिए। सधा हुआ सवार सधे हुए घोड़े की तेज गति की कभी शिकायत नहीं करता, बल्कि वह तो उसका आनन्द ही लेता है। इशारों पर नचाता हुआ, हवा से बातें करता है, जहाँ मोड़ना चाहे मोड़ लेता है। जहाँ रोकना चाहे रोक लेता है । आप भी अपने आपको, अपने मन को इस प्रकार साध लें कि मन को जहाँ मोड़ना चाहें, मोड़ लें, जहाँ रोकना चाहें, रोक लें; फिर तो यह मन आपके लिए परेशानी की चीज नहीं, बल्कि बड़े आनन्द की चीज होगी। एकाग्रता या पवित्रता : बहुत से जिज्ञासु मन को एकाग्र करने की बात प्राय: मुझसे पूछते हैं। मैं कहा करता हूँ, मन को एकाग्र करना कोई बड़ी चीज नहीं है। आप जिसे अहम सवाल या मुख्य प्रश्न कहते हैं, वह मन को एकाग्र करने का नहीं, बल्कि मन की पवित्रता का है । सिनेमा देखते हैं, तो वहाँ भी मन बड़ा स्थिर हो जाता है। खेल-कूद और गपशप में समय का पता नहीं चलता, उसमें भी मन बड़ा एकाग्र हो जाता है। फिर मन को एकाग्र करना कोई बड़ी बात हो, ऐसी बात नहीं। सवाल है, मन को पवित्र कैसे १. न सव्वतो मनो निवारये न मनो संयतत्तमागतं । यतो यतो च पापकं ततो ततो मनो निवारये ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only संयुक्त निकाय, १ । १ ।२४ www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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