________________
१२ चिंतन की मनोभूमि ठण्डी क्यों नहीं बन जाती? पानी रुक क्यों नहीं जाता? सूर्य शीतलता क्यों नहीं देता ? दिल धड़कनें-गतिशीलता—क्यों नहीं बन्द कर देता?"
। प्रत्येक वस्तु का अपना धर्म होता है, स्वभाव होता है। हवा का धर्म चलना है, अग्नि का धर्म जलना है और मन का धर्म मनन करना है। मन है, तो मनन है। मनन है, तो मनुष्य है। मन जब मनन करेगा तो गतिशीलता आएगी ही, सक्रियता आएगी ही। मन से शिकायत है तो क्या आप एकेन्द्रिय आदि बिना मन वाले (असंज्ञी) हो जाते तो अच्छा होता ? न रहता बाँस न बजती बाँसुरी! मन ही नहीं होता, तो उसमें चंचलता भी नहीं आती!
बात वस्तुतः यह है कि मन कोई परेशानी और दुविधा की चीज नहीं है। यह तो एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। महान् पुण्य से प्राप्त होने वाली दुर्लभ निधि है। भगवान् महावीर ने कहा है-"बहुत बड़े पुण्य का जब उदय होता है, तो मन की प्राप्ति होती है।" सम्यग् दर्शन किसको प्राप्त होता है ? संज्ञी को या असंज्ञी को ? . जिसके पास मन नहीं, क्या वह सम्यग् दृष्टि हो सकता है ? नहीं न! सम्यग् दृष्टि की श्रेष्ठतम उपलब्धि मन वाले को ही हो सकती है, यह आप मानते हैं, तो फिर मन आपके लिए दुविधा की वस्तु क्यों है ? उसे ऐसा भूत क्यों समझते हैं कि जो जबरदस्ती आपके पीछे लग गया है। मेरे बन्धुओ! यह तो वह देवता है, जिसके लिए बड़ी-बड़ी साधनाएँ करनी पड़ती हैं। फिर भी मन को मारने की बात क्यों?
मन की साधना एक रात की बात है। रात ज्यों-ज्यों गहरा रही थी, त्यों-त्यों नीलगगन में तारे .. अधिक प्रभास्वर हो रहे थे, चमक रहे थे। शांत नीरव निशा! श्रावस्ती का अनाथपिण्डक-जेतवन आराम ! तथागत बुद्ध ध्यान चिन्तन में लीन !
सघन अंधकार को चीरता हुआ एक प्रकाश पुज-सा महान् द्युतिमान देवता तथागत का अभिवादन करके चरणों में खड़ा हुआ। उसकी उज्ज्वल नीलप्रभा से सारा जेतवन आलोकित हो उठा। "भन्ते, आपने कहा-मन ही सब विषयों की प्रसवभूमि है, तृष्णा एवं क्लेश सर्वप्रथम मन में ही उत्पन्न होते हैं, तो क्या साधक जहाँजहाँ से मन को हटा लेता है, वहाँ-वहाँ से दुःख भी हट जाता है ? क्या सभी जगह से मन को हटा लेने पर सब दुःख छूट जाते हैं ?" ...अन्तर को सहज जिज्ञासा से स्फूर्त देवता की वचनभंगिमा हवा में दूर तक तैरती चली गई।
१. यतो यतो मनो निवारये न दुक्खमेति न ततो तातो ।
स सव्वतो मनो निवारये स सव्वतो दुक्खा पमुच्चति ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org