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________________ मन : एक सम्यक् विश्लेषण ११ जन्मा ? मन की सृष्टि से ही तो! मनुष्य ने मनन किया, चिन्तन किया और इस विशाल सृष्टि का निर्माण हो गया । इसलिए मैंने कहा- मन ब्रह्मा है, मन जैसा दूसरा कोई साथी नहीं, मित्र नहीं और परमशक्ति नहीं । यह ठीक है कि मन शत्रु भी है, और वह बहुत बड़ा भयंकर शत्रु है। जब वह गलत सोचना शुरू करता है तो सृष्टि में प्रलय मचा देता है । निरपराध मनुष्यों के रक्त की नदियाँ बहा देता है और हड्डियों के पहाड़ खड़े कर देता है। मन ने राम को पैदा किया तो रावण को भी ! धर्मपुत्र युधिष्ठिर को जन्म दिया, तो दुर्योधन को भी ! और एक नहीं, इस संसार में लाखों-करोड़ों रावण, दुर्योधन और हिटलर मन से पैदा होते रहे हैं, जिनकी हुंकार से सृष्टि काँपती रही है । मानवीय रक्त से नहाती रही है। फिर सोचिए, मन जैसा शत्रु कौन होगा ! मारना या साधना : मन की इस अपार शक्ति से, अद्भुत माया से, जब आप परिचित हैं, तो सहज ही यह प्रश्न आपके सामने आ जाता है कि इस मन को वश में कैसे करें ? इसको मित्र कैसे बनाएँ ? इस सम्बन्ध में साधना के क्षेत्र में दो विचार चलते रहे हैं। एक विचार वह है, जो मन को शत्रु के रूप में ही देखता आया है, इसलिए वह मन को मारने की बात कहता है । वह कहता है— मन सबसे बड़ा शत्रु है, इसे यदि नहीं मारा, तो कुछ भी नहीं हुआ | 'मन मारा तन वश किया । ' - यही उसके स्वर हैं, भजन हैं । मन को मारने के लिए उसने अनेक क्रियाएँ भी बतलाईं । हठयोग आया, प्राणायाम की क्रियाएँ आईं, मन को मूच्छित करने के तरीके निकले और वे यहाँ तक पहुँच गये कि मदिरा, भाँग, गाँजा और धतूरा तक पीकर मन को मूर्च्छित करने के प्रयत्न चले। हठयोगी साधकों ने कहा- मन पारा है, पारे को मारने से जैसे वह सिद्ध होकर रसायन बन जाता है, बस इसी तरह मन को मार लो, वह सिद्ध रसायन बन जाएगा । इस प्रकार मन को मारने की यह एक साधना है, जो आज भी चल रही है। यहाँ एक बात समझ लेने की है कि साधक, साधक होता है, मारक नहीं । मारक का अर्थ होता है - हत्यारा! और साधक का अर्थ होता है— साधने वाला । साधक मारने की बात नहीं सोच सकता । उसकी दृष्टि साधनाप्रधान होती है । प्रत्येक वस्तु को साधने का वह प्रयत्न करता है। इसलिए मन को मारने की जगह, मन को साधने की बात भी आ गई। I मन एक बहुमूल्य उपलब्धि : विचारकों को शिकायत है कि "मन बड़ा चंचल है । " किन्तु मैं पूछता हूँ कि यह शिकायत ऐसी ही तो नहीं है कि हवा क्यों चलती है ? अग्नि क्यों जलती है ? पानी क्यों बरसता है ? सूर्य क्यों तपता है ? हवा स्थिर क्यों नहीं हो जाती ? अग्नि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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