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३१६ | चिंतन की मनोभूमि
को आर्य कहा जाता है । सब लोग दण्ड से डरते हैं, मृत्यु से भय खाते हैं। मानव दूसरों को अपनी तरह जानकर न तो किसी को मारे और न किसी को मारने की प्रेरणा करे ।२ जो न स्वयं किसी का घात करता है, न दूसरों से करवाता है, न स्वयं किसी को जीतता है, वह सर्वप्राणियों का मित्र होता है, उसका किसी के साथ वैर नहीं होता । ३ जैसा मैं हूँ-वैसे ये हैं, तथा जैसे ये हैं वैसा मैं हूँ, इस प्रकार आत्म-सदृश मानकर न किसी का घात करे, न कराए। सभी प्राणी सुख के चाहने वाले हैं, इनका जो दण्ड से घात नहीं करता है, वह सुख का अभिलाषी मानव अगले जन्म में सुख को प्राप्त करता है । इस प्रकार तथागत बुद्ध ने भी हिंसा का निषेध करके अहिंसा की प्रतिष्ठा करने का प्रयत्न किया है।
तथागत बुद्ध का जीवन 'महकारुणिक जीवन' कहलाता है। दीन-दु:खियों के प्रति उनके मन में अत्यन्त करुणा भरी थी । सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में भी उन्होंने तीर्थंकर महावीर की भाँति अनेक प्रसंगों पर अहिंसात्मक प्रतिकार के उदाहरण रखे । उनकी अहिंसात्मक और शान्ति-प्रिय वाणी से अनेक बार घातप्रतिघात में, शौर्यप्रदर्शन में क्षत्रियों का खून बहता - बहता रुक गया।
भगवान् महावीर की भाँति तथागत बुद्ध भी श्रमण संस्कृति के एक महान् प्रतिनिधि थे । उन्होंने भी सामाजिक व राजनीतिक कारणों से होने वाली हिंसा की आग को प्रेम और शान्ति के जल से शान्त करने के सफल प्रयोग किए, और इस आस्था को सुदृढ़ बनाया कि समस्या का प्रतिकार सिर्फ तलवार ही नहीं, प्रेम और सद्भाव भी है। यही अहिंसा का मार्ग वस्तुतः शान्ति और समृद्धि का मार्ग है। वैदिक-धर्म में अहिंसा भावना :
वैदिक धर्म भी अहिंसा - प्रधान धर्म है । " अहिंसा परमो धर्मः" के अटल सिद्धान्त को सम्मुख रखकर उसने अहिंसा की विवेचना की है। अहिंसा ही सब से उत्तम पावन धर्म है, अतः मनुष्य को कभी भी, कहीं भी, किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए । जो कार्य तुम्हें पसन्द नहीं है, उसे दूसरों के लिए कभी न
१. न तेन आरियो होति ये. न पाणानि हिंसति । अहिंसा सव्वपाणानं, आरियोति पवुच्चति ॥ २. सव्वे तसन्ति दण्डस्स, सव्वेस जीवितं पियं । अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये ॥ ३. यो न हन्तिन घातेति न जिनाति न जायते । मित्तं सो सव्वभूतेसु वेरं तस्स न केनचीति ॥ ४. यथा अहं तथा एते, यथा एते तथा अहं ।
अत्तानं उपमं कत्वा, हनेय्य न घातये ॥ ५. सुखकामानि भूतानि, यो दण्डेन न विहिंसति । अत्तनो सुखमेसानो पेच्च सो लभते सुखं ॥ अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृत्तां वरः । तस्मात् प्राणभृतः सर्वान् न हिंस्यान्मानुषः क्वचित् ॥
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- धम्मपद १९ । १५
- धम्मपद १०।१
- इतिवृत्तक, पृ. २०
- सुत्तनिपात, ३ । ३ । ७ | २७
- उदान, पृ. १२
- महाभारत — आदि पर्व ११ । १३
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