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________________ जैन संस्कृति की अमर देन : अहिंसा ३१५ होगा। जैन आगमों में जहाँ अहिंसा के साठ एकार्थक नाम दिए गए हैं, वहाँ वह दया, रक्षा, अभय आदि के नाम से भी अभिहित की गई है। - अनुकम्पा दान, अभयदान तथा सेवा आदि अहिंसा के ही रूप हैं, जो प्रवृत्तिप्रधान हैं। यदि अहिंसा केवल निवृत्तिपरक ही होती, तो जैन आचार्य इस प्रकार का कथन कथमपि नहीं करते। 'अहिंसा' शब्द भाषाशास्त्र की दृष्टि से निषेध-वाचक है। इसी कारण बहुत से व्यक्ति इस भ्रम में फँस जाते हैं कि अहिंसा केवल निवृत्तिपरक है। उसमें प्रवृत्ति जैसी कोई चीज नहीं। किन्तु गहन चिन्तन करने के पश्चात् यह तथ्य स्पष्ट हुए बिना नहीं रहेगा कि अहिंसा के अनेक पहलू हैं, उसके अनेक अंग हैं। अत: प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों में अहिंसा समाहित है, प्रवृत्ति-निवृत्ति दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। एक कार्य में जहाँ प्रवृत्ति हो रही है, वहाँ दूसरे कार्य से निवृत्ति भी होती है। ये दोनों पहलू अहिंसा के साथ भी जुड़े हैं। जो केवल निवृत्ति को ही प्रधान मानकर चलता है। वह अहिंसा की आत्मा को परख ही नहीं सकता। वह अहिंसा की सम्पूर्ण साधना नहीं कर सकता। जैन श्रमण के उत्तर गुणों में समिति और गुप्ति का विधान है। समिति की मर्यादाएँ प्रवृत्तिपरक हैं और गुप्ति की मर्यादाएँ निवृत्तिपरक हैं। इससे भी स्पष्ट है कि अहिंसा प्रवृत्तिमूलक भी है। प्रवृत्तिनिवृत्ति दोनों अहिंसारूप सिक्के के दो पहलू हैं। एक-दूसरे के अभाव में अहिसा अपूर्ण है। यदि अहिंसा के इन दोनों पहलुओं को न समझ सके, तो अहिंसा की वास्तविकता.से हम बहुत दूर भटक जाएँगे। असद् आचरण से निवृत्त बनो और सद्आचरण में प्रवृत्ति करो, यही निवृत्ति और प्रवृत्ति की सुन्दर एवं पूर्ण विवेचना है। __ अहिंसक प्रवृत्ति के बिना समाज का काम नहीं चल सकता चूँकि प्रवृत्ति-शून्य अहिंसा समाज में जड़ता पैदा कर देती है। मानव एक शुद्ध सामाजिक प्राणी है, वह समाज में जन्म लेता है और समाज में रहकर ही अपना सांस्कृतिक विकास एवं अभ्युदय करता है, उस उपकार के बदले में वह समाज को कुछ देता भी है। यदि कोई इस कर्त्तव्य की राह से विलग हो जाता है, तो वह एक प्रकार से उसकी असामाजिकता ही होगी। अतः प्रवर्तकरूप धर्म के द्वारा समाज की सेवा करना मानव का प्रथम कर्तव्य है, और इस कर्त्तव्य की पूर्ति में ही मानव का अपना तथा. समाज का कल्याण निहित है। बौद्ध-धर्म में अहिंसा भावना : 'आर्य' की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए तथागत बुद्ध ने कहा है "प्राणियों की हिंसा करने से कोई आर्य नहीं कहलाता, बल्कि जो प्राणी की हिंसा नहीं करता, उसी १. प्रश्न व्याकरण सूत्र (संवर द्वार) (क) दया देहि-रक्षा -प्रश्नव्याकरण वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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