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________________ |३१४ चिंतन की मनोभूमि और सामान्य जनमानस को उबुद्ध करते हुए कहा-"हिंसा कभी भी धर्म नहीं हो सकती। विश्व के सभी प्राणी, वे चाहे छोटे हों, या बड़े, पशु हों या मानव सभी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। सबको सुख प्रिय है, दु:ख अप्रिय है। सबको अपना जीवन प्यारा है। जिस हिंसक व्यापार को तुम अपने लिए पसन्द नहीं करते, उसे दूसरा भी पसन्द नहीं करता। जिस दयामय व्यवहार को तुम पसन्द करते हो, उसे सभी पसन्द करते हैं। यही जिन शासन के कथनों का सार है,३ जो कि एक तरह से सभी धर्मों का सार है। किसी के प्राणों की हत्या करना, धर्म नहीं हो सकता। अहिंसा, संयम और तप यही वास्तविक धर्म है। इस लोक में जितने भी क्रास और स्थावर प्राणी हैं। उनकी हिंसा न जान कर करो, न अनजान में करो और न दूसरों से ही किसी की हिंसा कराओ। क्योंकि सब के भीतर एक-सी आत्मा है, हमारी तरह सबको अपने प्राण प्यारे हैं, ऐसा मानकर भय और वैर से मुक्त होकर किसी प्राणी की हिंसा न करो । जो व्यक्ति खुद हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है और दूसरों की हिंसा का अनुमोदन करता है, वह अपने लिए वैर ही बढ़ाता है। अतः प्राणियों के प्रति वैसा ही भाव रखो, जैसा कि अपनी आत्मा के प्रति रखते हो। सभी जीवों के प्रति अहिंसक होकर रहना चाहिए। सच्चा संयमी वही है, जो मन, वचन और शरीर से किसी की हिंसा नहीं करता। यह है-भगवान् महावीर की आत्मौपम्य दृष्टि, तो अहिंसा में ओत-प्रोत होकर विराट् विश्व के सम्मुख आत्मानुभूति का एक महान् गौरव प्रस्तुत कर रही है। जैन दर्शन में अहिंसा के दो पक्ष हैं। नहीं मारना' यह अहिंसा का एक पहलू है, उसका दूसरा पहलू है—मैत्री, करुणा और सेवा। यदि हम सिर्फ अहिंसा के नकारात्मक पहलू पर ही सोचें, तो यह अहिंसा की अधूरी समझ होगी। सम्पूर्ण अहिंसा की साधना के लिए प्राणिमात्र के साथ मैत्री सम्बन्ध रखना, उसकी सेवा करना, उसे कष्ट से मुक्त करना आदि विधेयात्मक पक्ष पर भी समुचित विचार करना -दशवैकालिक सूत्र, ६ । ११ -आचारांग सूत्र १ । २।३ -वृहत्कल्प भाष्य, ४५८४ ___-दशवैकालिक, १।१ १. सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं। २. सव्वे पाणा पिआउया सुहसाया दुहपडिकूला। ३. जं इच्छसि अप्पणतो, जं च न इच्छति अप्पणतो। तं इच्छ परस्स वि, एत्तियग्गं जिणसासणयं ।। ४. धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो। ५. जावन्ति लोए पाणा तसा अदुव थावरा। ते जाणमजाणं वा न हणे नो विधायए। ६. अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स पाणे पियायए। न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए॥ ७. सयंऽतिवायए पाणे, अदुवाऽन्नेहिं घायए। हणन्तं वाऽणुजाणाइ वेरं वड्ढइ अप्पणो॥ -दशवैकालिक -उत्तराध्ययन,८।१० -सूत्र कृताङ्ग, १।१।१।३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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