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________________ ३०४ | चिंतन की मनोभूमि सत्य दृष्टि बननी चाहिए, ताकि हम स्वतंत्र अप्रतिबद्ध प्रज्ञा से कुछ सोच सकें। जब तक दृष्टि पर से अंधश्रद्धा का चश्मा नहीं उतरेगा, जब तक पूर्वाग्रहों के खूँटे से हमारा मानस. बँधा रहेगा तब तक हम कोई भी सही निर्णय नहीं कर सकेंगे । इसलिए युग की वर्तमान परिस्थितियों का तकाजा है कि हम पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर नये सिरे से सोचें । प्रज्ञा की कसौटी हमारे पास है, और यह कसौटी भगवान् महावीर एवं गणधर गौतम ने, जो स्वयं सत्य के साक्षात्द्रष्टा एवं उपासक थे, बतलाई है" पन्ना समिक्खए धम्मं १ प्रज्ञा ही धर्म की, सत्य की समीक्षा कर सकती है, उसी से तत्त्व का निर्णय किया जा सकता है। शास्त्र स्वर्ण की परख : 1 प्रज्ञा एक कसौटी है, जिस पर शास्त्र रूपी स्वर्ण की परख की जा सकती है और वह परख होनी ही चाहिए। हममें से बहुत से साथी हैं, जो कतराते हैं कि कहीं परीक्षा करने से हमारा सोना पीतल सिद्ध न हो जाए। मैं यह कहना चाहता हूँ कि इसमें कतराने की कौन सी बात है ? यदि सोना वस्तुतः सोना है, तो वह सोना ही रहेगा, और यदि पीतल है, तो उस पर सोने का मोह आप कब तक किए रहेंगे ? सोने और पीतल को अलग-अलग होने दीजिए— इसी में आप की प्रज्ञा की कसौटी का चमत्कार है । जैन आगमों के महान् टीकाकार आचार्य अभयदेव ने भगवती सूत्र की टीका की पीठिका में एक बहुत बड़ी बात कही है, जो हमारे लिए संपूर्ण भगवद्वाणी की कसौटी हो सकती है । प्रश्न है कि आप्त कौन हैं ? और उनकी वाणी क्या है ? आप्त भगवान् क्या उपदेश करते हैं ? उत्तर में कहा गया है कि- जो मोक्ष का अंग है, मुक्ति का साधन है, आप्त भगवान् उसी यथार्थ सत्य का उपदेश करते हैं। आत्मा की मुक्ति के साथ जिसका प्रत्यक्ष या पारस्परिक कोई सम्बन्ध नहीं है, उसका उपदेश भगवान् कभी नहीं करते। यदि उसका भी उपदेश करते हैं, तो उनकी आप्तता में दोष आता है | २ यह एक बहुत सच्ची कसौटी है, जो आचार्य अभयदेव ने हमारे समक्ष प्रस्तुत की है। इससे भी पूर्व लगभग चौथी- पाँचवीं शताब्दी के महान् तार्किक, जैन तत्त्वज्ञान को दर्शन का रूप देने वाले आचार्य सिद्धसेन ने भी शास्त्र की एक कसौटी निश्चित करते हुए कहा था १. उत्तराध्ययन, २३ । २५ २. नहि आप्तः साक्षाद् पारंपर्येण वा यन्त्र मोक्षाङ्गं तद् प्रतिपादयितुमुत्सहते अनाप्तत्त्वप्रसंगात् - आचार्य अभयदेव, भगवती वृति, १ । १ श www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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