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________________ धर्म की कसौटी : शास्त्र ३०३ मैं पूछता हूँ कि आपको शास्त्रों की परख करने का अधिकार क्यों नहीं है ? कभी एक परम्परा थी, जो चौरासी आगम मानती थी, ग्रन्थों में उसके प्रमाण विद्यमान हैं । फिर एक परम्परा खड़ी हुई, जो चौरासी में से छँटनी करती करती पैंतालीस तक मान्य` ठहराई। भगवान् महावीर के लगभग दो हजार वर्ष बाद फिर एक परम्परा ने जन्म लिया, जिसने पैंतालीस को भी अमान्य ठहराया और बत्तीस आगम माने। मैं पूछता हूँ -धर्मवीर लोंकाशाह ने, पैंतालीस आगमों में से बत्तीस छाँट लिए, क्या वे कोई बहुत बड़े श्रुतधर आचार्य थे ? क्या उन्हें कोई विशिष्ट प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त हुआ था ? क्या उन्हें कोई ऐसी देववाणी हुई थी कि अमुक शास्त्र शास्त्र है, और अमुक नहीं फिर उन्होंने जो यह निर्णय किया और जिसे आज आप मान रहे हैं, वह किस आधार पर था ? सिर्फ अपनी प्रज्ञा एवं दृष्टि से ही तो यह छँटनी उन्होंने की थी, तो आज क्या वह प्रज्ञा और वह दृष्टि लुप्त हो गई है ? क्या आज किसी विद्वान् में वह निर्णायक शक्ति नहीं रही ? या साहस नहीं है ? अथवा वे अपनी श्रद्धा-प्रतिष्ठा के भय से भगवद्वाणी का यह उपहास देखते हुए भी मौन हैं ? मैं साहस के साथ कह देना चाहता हूँ कि आज वह निर्णायक घड़ी आ पहुँची है कि 'हाँ' या 'न' में स्पष्ट निर्णय करना होगा । पौराणिक प्रतिबद्धता एवं शाब्दिक व्यामोह को तोड़ना होगा, और यह कसौटी करनी ही होगी कि भगवद्वाणी क्या है ? और उसके बाद का अंश क्या है ? विचार - प्रतिबद्धता को तोड़िए : किसी भी परम्परा के पास ग्रन्थ या शास्त्र कम-अधिक होने से जीवन के आध्यात्मिक विकास में कोई अन्तर आने वाला नहीं है। यदि शास्त्र कम रह गए तो भी आपका आध्यात्मिक जीवन बहुत ऊँचा हो सकता है, विकसित हो सकता है, और शास्त्र का अम्बार लगा देने पर भी आप बहुत पिछड़े हुए रह सकते हैं । आध्यात्मिक विकास के लिए जिस चिंतन और दृष्टि की आवश्यकता है, तो अन्तर से जाग्रत होती है। जिसकी दृष्टि सत्य के प्रति जितनी आग्रह रहित एवं उन्मुक्त होगी, जिसका चिंतन जितना आत्ममुखीन होगा, वह उतना ही अधिक आध्यात्मिक विकास कर सकेगा। वह मैंने देखा है, अनुभव किया है-ग्रन्थों एवं शास्त्रों को लेकर हमारे मानस में एक प्रकार की वासना, एक प्रकार का आग्रह, जिसे हठाग्रह ही कहना चाहिए, पैदा हो गया है। आचार्यशंकर ने 'विवेक चूड़ामणि' में कहा है – देह - वासना एवं लोकवासना के समान शास्त्र - वासना भी यथार्थ ज्ञान की प्रतिबन्धक है। आचार्य हेमचन्द्र ने इसे ही 'दृष्टिरागस्तु पापीयान् दुरुच्छेद्यः सतामपि कहकर दृष्टिरागी के लिए सत्य की अनुसंधित्सा को बहुत दुर्लभ बताया है। हम अनेकान्त दृष्टि और स्याद्वाद विचार पद्धति की बात-बात पर जो दुहाई देते हैं, वह आज के राजनीतिकों की तरह केवल नारा नहीं होना चाहिए, हमारी Jain Education International For Private & Personal Use Only 1 www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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